Wednesday, 1 May 2013

कबीर दास के सार शब्द - सार शब्द भूल कर कबीर का चेला बना हड्डियों का सौदागर - बसंत



निसंदेह कबीर तत्त्वदर्शी संत थे. आजकल जगत गुरु बन कर कबीर के चेले  इस तत्त्वदर्शी संत के आधे अधूरे ज्ञान को बता कर अपनी पूजा कराने  की चाह में कुछ भी कहने और करने के लिए तैयार हैं. इस प्रसंग में उपनिषद के वचन सहसा स्मरण में आ जाते हैं-
अंधा अंधों को ज्ञान दे रहा है.
कबीर के कुछ प्रमुख सिद्धांत
1- तेरा साईं तुझ में - तेरा ईश्वर तेरे अन्दर है. इसी सन्दर्भ में कबीर कहते हैं
 मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे मैं तो तेरे पास - अरे मनुष्य मुझे कहाँ ढूढने चला मैं तो तेरे पास हूँ .
कबीर के चेले कहते हैं वह 7, 14, 24 ,28 ब्रह्मांडों के ऊपर बैठा है.

2- 'गुण में निरगुन निरगुन में गुन, बात छाडी क्यों बहिए.'
कबीर कहते हैं लोग भ्रम में हैं कोई कहता है ईश्वर सगुण है कोइ उसे निरगुण कहता है पर दोनों ही नहीं जानते . परमात्मा निराकार भी है और साकार भी है. एक दृष्टि अधूरी है. कबीर इसे मन का धोखा कहते हैं.
कबीर ने सावधान किया कोई उसे सगुण कहेगा कोई निरगुण, निराकार पर वह ऐसा तत्त्व है जिसके विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह सभी कुछ है.
'अलख न कथना जाई.'
वेदान्त और भगवद्गीता इसी अलख को अव्यक्त कहते हैं.
सब धर्मों के लोग कहते हैं कि परमात्मा सर्व शक्तिमान है. सर्व शक्तिमान मान कर भी उसे अधूरा मानते हैं. निराकार को मानने वाले उसे आधा ही मानते हैं इसी प्रकार साकार को मानने वाले उसे आधा ही मानते हैं. क्या सर्व शक्तिमान परमात्मा जो निराकार है उसमें साकार होने की सामर्थ नहीं है? इसी प्रकार सर्व शक्तिमान परमात्मा जो साकार है उसमें निराकार होने की सामर्थ नहीं है तो फिर कैसा और क्यों सर्व शक्तिमान हुआ. सर्व शक्तिमान को दोनों रूपों  में स्वीकार करना होगा. यही नहीं उसे सभी गुण दोषों के साथ स्वीकारना होगा तभी पूर्णता है. वह यदि निराकार है तो सृष्टि भी वही है.
पर कबीर के चेले कहते हैं ईश्वर सगुण साकार है, वह कबीर परमात्मा है. वह 7, 14, 24 ,28ब्रह्मांडों के ऊपर सतलोक में शरीर रूप में विराजमान है तो कुछ कहते हैं वह निर्गुण निराकार है. यह दोनों दृष्टियाँ अधूरी हैं.
तुलसीदास लिखते हैं-
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा
श्री भगवान् गीता में कहते हैं अव्यक्त और व्यक्त मैं ही हूँ.
ईशावास्योपनिषद का प्रारम्भ यहीं से होता है - इस संसार मैं जो कुछ भी है उस में ईश्वर का वास है.
कबीर का पूरा दर्शन  भगवद्गीता और वेदान्त से प्रभावित है. भगवद्गीता में श्री भगवान् अपनी तीनों स्थितियों अधियज्ञ, अधिदेव और अधिभूत को बताते हुए कहते हैं कि मैं सब भूतों में न होते हुए भी सब को धारण करता हूँ.
चूँकि कबीर भक्त और कवि भी थे इसलिए इस दर्शन को प्रेम की चाशनी के साथ उन्होंने परोसा.
कबीर ने ज्ञान से उपलब्ध प्रेम को अंतिम स्थिति माना है
राम सनेही ना मरे
ईश्वर के अनेक नाम आपने दिए हैं, सब एक ही के नाम हैं फिर यह कहना मेरा भगवान् तेरे भगवान् से बड़ा है. हिन्दू, मुसलमान ईसाई ,शैव, शाक्त, आदि आदि यही करते आ रहे हैं. गीता में भगवान् स्वयं कहते हैं मैं परम ज्ञान हूँ . इसी बात को कबीर कहते हैं
नूरै ओढ़न नूरे डासन, नूरै का सिरहाना
वहां ज्ञान ही रजाई है ,ज्ञान ही बिस्तरा है और ज्ञान ही तकिया है.
ज्ञानी मेरा रूप है.(भगवद्गीता).  यहाँ फिर धोखा न खा जाना, यह समझ लें कि ज्ञान का अर्थ है अस्मिता का अनुभूत सत्य, यही बोध है.
कबीर के एक चेले ने तो अपने को साकार कबीर का अवतार घोषित कर दिया. आप खुद सोचें साकार कबीर निराकार हुए बिना दूसरी देह में कैसे आ सकते हैं. वह कहते हैं कबीर जी ने कई मुर्दों को ज़िंदा किया. किया होगा. पर साकार कबीर जी के वर्तमान अवतार एक मरी मक्खी  ज़िंदा कर दें तो यह विश्व उनके दर्शन से धन्य हो जाएगा.
हिन्दूओं के पुराण कथा साहित्य है .हिन्दू दर्शन जानना है तो वेदान्त और भगवद्गीता को समझने का प्रयास करें. पुराणों में भिन्न भिन्न सम्प्रदायों ने अपने अपने इष्ट को सृष्टि का आदि कारण परम परमात्मा बताने का अपने तरीके से प्रयास किया है. यथार्थ जानना है तो वेदान्त और भगवद्गीता का अध्ययन करें. दूसरे के मत की निंदा का कारण आपका अहंकार है और कबीर कहते हैं-

1- "आपन को न सराहिये, पर निन्दिये नहिं कोय।"
2- "जब मैं था तब हरि नहीं"
अंत में मात्र इतना ही निवेदन है कि सृष्टि के प्रत्येक परमाणु का अपना अस्तित्त्व है और इसी अस्तित्व का अपने में बोध पूर्णता है.










Tuesday, 26 March 2013

सार शब्द- ईश्वर की आवाज - जब ते उलटि भए हैं राम दुःख विन्से सुख कियो विश्राम- बसंत




 इस विषय में चर्चा से पहले श्री भगवान द्वारा भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में कहे वचनों का स्मरण आवश्यक है.
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।16।
इस संसार में दो प्रकार के पुरुष हैं एक क्षर अर्थात नाशवान दूसरा अक्षर अविनाशी। इनमें जो भूत हैं जो देह है जो जड़ प्रकृति है वह नाशवान पुरुष है क्षर है। जो जीव है वह अविनाशी है।

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।17।
इसमें भी अधिक आश्चर्य की बात यह कि इन क्षर अक्षर दो पुरुषों के अलावा एक तीसरा पुरुष भी है। यह पुरुष अत्यन्त श्रेष्ठ है और जब यह होता है तो दोनों पुरुष क्षर और अक्षर के अस्तित्व को समाप्त कर देता है. सर्वत्र यही उत्तम पुरुष व्याप्त हो जाता है। यह पुरुषोत्तम तीनों लोकों में अर्थात सृष्टि के कण कण में व्याप्त होकर सृष्टि को एक अंश से धारण किये है। यह उत्तम पुरुष ही अव्यक्त परमात्मा अथवा विशुद्ध आत्मा है।

अब उक्त वचनों  को लेते हुए सार शब्द की चर्चा  करते हैं.

जब सार शब्द (ज्ञान) प्रगट होने लगता है  तो जीव स्वभाव और अज्ञान सब नष्ट होने लगता है और यह ज्ञान फैलता हुआ पूर्ण हो जाता है तब न अज्ञान रहता है न जीव. सृष्टि पूर्ण रूप से ज्ञान के परमाणुओं से बनी है शुद्ध व पूर्ण रूप में परमात्मा है. जड़ रूप में पदार्थ है और बीच की मिलीजुली स्थिति जीव है.
इस पूर्ण व शुद्ध ज्ञान - सार शब्द  की अनुभूति होनी आवश्यक है. यह ईश्वरीय आवाज है जिसमें कोई ध्वनि नहीं है. किसी भी मन्त्र द्वारा आप ईश्वर को पुकारते हैं, याद करते हैं, सुमिरन करते हैं पर जब इसका उलटा हो जाय प्रभु तुम्हारा सुमिरन करने लगें तब जानो तुम्हारी प्रार्थना, सुमिरन कबूल होने लगा है. प्रभु के सुमिरन का आभास मात्र होते ही आप आनंद में आने लगते हो. अब सुमिरन जो तुम करते थे वह उलट गया. अब प्रभु सुमिरन करने लगे हैं.
इसलिए बाल्मीकि जी के लिए कहा जाता है-
उलटा नाम जपत जग जाना बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना.
मरा मरा की तो कहानी बना दी लोगों ने.
अब उलटे सुमिरन की स्थिति  बडती  जाती  है तब अपने मजे का मजा आता है. इस स्थिति में कबीर कहते हैं-
सुमिरन मेरा प्रभु करें मैं पाऊं विश्राम.
अब आपको स्पस्ट हो गया होगा सार शब्द क्या है जिसके लिए कबीर कहते हैं-
सार शब्द जाने बिना कागा हंस न होय.
कोवा अज्ञान और जीव का प्रतीक है, हंस ज्ञान का. इसलिए हंस वही हो सकता है जिसे महसूस होने लगे की उसके अन्दर बैठकर परमात्मा उसे सुमिरन करने लगे हैं. अब यह उलटा सुमिरन बड़ने लगता है और आप की असली आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ हो जाती है.
इस सुमिरन का ज्ञान कराने के लिए श्री भगवान् कृष्ण चन्द्र जी ने उद्धव जी को ब्रज में गोपियों के पास भेजा था. यही असल में सुरत की धार है जिसे पाकर जीव आनंदित हो उठता है.
हनुमान जी के ह्रदय में बैठ  कर श्री राम का हनुमान जी का सुमिरन ही सार शब्द है. यह सार शब्द सबके लिए है. इसका कोई नाम नहीं है. बिना ध्वनि के अन्दर प्रगट होता है. इसी के कारण आपके जीवन में रोनक है. बस आपको पता नहीं है. आपके छोटे से छोटे कार्य में वह परमात्मा आपसे बात करते हैं. अभी आपको पता नहीं है उलटा सुमिरन होते ही आपकी परमात्मा से बात होने लगेगी. कोशिश करें. यह रहस्य आपको स्वयं अनुभूत होगा. आप  सहज रूप से परमात्मा से जुड़ जायेंगे.
तभी कबीर कहते हैं-
जब ते उलटि भए हैं राम
दुःख विन्से सुख कियो विश्राम.....
उलटि भी सुख सहज समाधी
आपु पछानै आपै आप
अब मनु उलटि सनातन हुआ.....









Wednesday, 13 February 2013

श्री कृष्ण स्तुति - नारायणम नारायणम श्री कृष्ण नारायणम - बसन्त



(सहज ध्यान, शान्ति  और आनन्द के लिए श्री कृष्ण की इस स्तुति का  नित्यप्रति गायन करें.)

नारायणम नारायणम श्री कृष्ण नारायणम
अच्युतम अच्युतम श्री कृष्ण नारायणम          
गोविन्दम गोविन्दम श्री कृष्ण नारायणम  
गोपालम गोपालम श्री कृष्ण नारायणम
केशवम केशवम श्री कृष्ण नारायणम
वासुदेवम वासुदेवम श्री कृष्ण नारायणम
देवतं देवतानाम  श्री कृष्ण नारायणम
आत्मोहम आत्मानाम श्री कृष्ण नारायणम
भूतात्मा भूतभावन  श्री कृष्ण नारायणम
ॐ कारो विश्वोहम  श्री कृष्ण नारायणम
पुरुषोतमः परम पुरुषः  श्री कृष्ण नारायणम
अव्ययः अव्यक्तः  श्री कृष्ण नारायणम
ईश्वरः पुष्कराक्ष  श्री कृष्ण नारायणम
अनादिनिधनः दुराधर्षः श्री कृष्ण नारायणम
सर्वेश्वरः पुण्डरीकाक्ष  श्री कृष्ण नारायणम
महामाया महाबुद्धि  श्री कृष्ण नारायणम
महाविद्या बीजरूपम श्री कृष्ण नारायणम
महाशक्ति महाविष्णु  श्री कृष्ण नारायणम
कामः कामप्रदः कृष्ण श्री कृष्ण नारायणम
अधियज्ञ ज्ञान-उत्तम  श्री कृष्ण नारायणम
अकाल मूरत माहाकालः श्री कृष्ण नारायणम
स्वयभू महाशंभू श्री कृष्ण नारायणम
शिवोहम शिवोहम श्री कृष्ण नारायणम
नामोहम नामोहम श्री कृष्ण नारायणम
सच्चिदानन्द ऋतम ब्रह्म श्री कृष्ण नारायणम
नारायणम नारायणम श्री कृष्ण नारायणम
नारायणम नारायणम श्री कृष्ण नारायणम

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