Wednesday 1 May 2013

कबीर दास के सार शब्द - सार शब्द भूल कर कबीर का चेला बना हड्डियों का सौदागर - बसंत



निसंदेह कबीर तत्त्वदर्शी संत थे. आजकल जगत गुरु बन कर कबीर के चेले  इस तत्त्वदर्शी संत के आधे अधूरे ज्ञान को बता कर अपनी पूजा कराने  की चाह में कुछ भी कहने और करने के लिए तैयार हैं. इस प्रसंग में उपनिषद के वचन सहसा स्मरण में आ जाते हैं-
अंधा अंधों को ज्ञान दे रहा है.
कबीर के कुछ प्रमुख सिद्धांत
1- तेरा साईं तुझ में - तेरा ईश्वर तेरे अन्दर है. इसी सन्दर्भ में कबीर कहते हैं
 मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे मैं तो तेरे पास - अरे मनुष्य मुझे कहाँ ढूढने चला मैं तो तेरे पास हूँ .
कबीर के चेले कहते हैं वह 7, 14, 24 ,28 ब्रह्मांडों के ऊपर बैठा है.

2- 'गुण में निरगुन निरगुन में गुन, बात छाडी क्यों बहिए.'
कबीर कहते हैं लोग भ्रम में हैं कोई कहता है ईश्वर सगुण है कोइ उसे निरगुण कहता है पर दोनों ही नहीं जानते . परमात्मा निराकार भी है और साकार भी है. एक दृष्टि अधूरी है. कबीर इसे मन का धोखा कहते हैं.
कबीर ने सावधान किया कोई उसे सगुण कहेगा कोई निरगुण, निराकार पर वह ऐसा तत्त्व है जिसके विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह सभी कुछ है.
'अलख न कथना जाई.'
वेदान्त और भगवद्गीता इसी अलख को अव्यक्त कहते हैं.
सब धर्मों के लोग कहते हैं कि परमात्मा सर्व शक्तिमान है. सर्व शक्तिमान मान कर भी उसे अधूरा मानते हैं. निराकार को मानने वाले उसे आधा ही मानते हैं इसी प्रकार साकार को मानने वाले उसे आधा ही मानते हैं. क्या सर्व शक्तिमान परमात्मा जो निराकार है उसमें साकार होने की सामर्थ नहीं है? इसी प्रकार सर्व शक्तिमान परमात्मा जो साकार है उसमें निराकार होने की सामर्थ नहीं है तो फिर कैसा और क्यों सर्व शक्तिमान हुआ. सर्व शक्तिमान को दोनों रूपों  में स्वीकार करना होगा. यही नहीं उसे सभी गुण दोषों के साथ स्वीकारना होगा तभी पूर्णता है. वह यदि निराकार है तो सृष्टि भी वही है.
पर कबीर के चेले कहते हैं ईश्वर सगुण साकार है, वह कबीर परमात्मा है. वह 7, 14, 24 ,28ब्रह्मांडों के ऊपर सतलोक में शरीर रूप में विराजमान है तो कुछ कहते हैं वह निर्गुण निराकार है. यह दोनों दृष्टियाँ अधूरी हैं.
तुलसीदास लिखते हैं-
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा
श्री भगवान् गीता में कहते हैं अव्यक्त और व्यक्त मैं ही हूँ.
ईशावास्योपनिषद का प्रारम्भ यहीं से होता है - इस संसार मैं जो कुछ भी है उस में ईश्वर का वास है.
कबीर का पूरा दर्शन  भगवद्गीता और वेदान्त से प्रभावित है. भगवद्गीता में श्री भगवान् अपनी तीनों स्थितियों अधियज्ञ, अधिदेव और अधिभूत को बताते हुए कहते हैं कि मैं सब भूतों में न होते हुए भी सब को धारण करता हूँ.
चूँकि कबीर भक्त और कवि भी थे इसलिए इस दर्शन को प्रेम की चाशनी के साथ उन्होंने परोसा.
कबीर ने ज्ञान से उपलब्ध प्रेम को अंतिम स्थिति माना है
राम सनेही ना मरे
ईश्वर के अनेक नाम आपने दिए हैं, सब एक ही के नाम हैं फिर यह कहना मेरा भगवान् तेरे भगवान् से बड़ा है. हिन्दू, मुसलमान ईसाई ,शैव, शाक्त, आदि आदि यही करते आ रहे हैं. गीता में भगवान् स्वयं कहते हैं मैं परम ज्ञान हूँ . इसी बात को कबीर कहते हैं
नूरै ओढ़न नूरे डासन, नूरै का सिरहाना
वहां ज्ञान ही रजाई है ,ज्ञान ही बिस्तरा है और ज्ञान ही तकिया है.
ज्ञानी मेरा रूप है.(भगवद्गीता).  यहाँ फिर धोखा न खा जाना, यह समझ लें कि ज्ञान का अर्थ है अस्मिता का अनुभूत सत्य, यही बोध है.
कबीर के एक चेले ने तो अपने को साकार कबीर का अवतार घोषित कर दिया. आप खुद सोचें साकार कबीर निराकार हुए बिना दूसरी देह में कैसे आ सकते हैं. वह कहते हैं कबीर जी ने कई मुर्दों को ज़िंदा किया. किया होगा. पर साकार कबीर जी के वर्तमान अवतार एक मरी मक्खी  ज़िंदा कर दें तो यह विश्व उनके दर्शन से धन्य हो जाएगा.
हिन्दूओं के पुराण कथा साहित्य है .हिन्दू दर्शन जानना है तो वेदान्त और भगवद्गीता को समझने का प्रयास करें. पुराणों में भिन्न भिन्न सम्प्रदायों ने अपने अपने इष्ट को सृष्टि का आदि कारण परम परमात्मा बताने का अपने तरीके से प्रयास किया है. यथार्थ जानना है तो वेदान्त और भगवद्गीता का अध्ययन करें. दूसरे के मत की निंदा का कारण आपका अहंकार है और कबीर कहते हैं-

1- "आपन को न सराहिये, पर निन्दिये नहिं कोय।"
2- "जब मैं था तब हरि नहीं"
अंत में मात्र इतना ही निवेदन है कि सृष्टि के प्रत्येक परमाणु का अपना अस्तित्त्व है और इसी अस्तित्व का अपने में बोध पूर्णता है.










Tuesday 26 March 2013

सार शब्द- ईश्वर की आवाज - जब ते उलटि भए हैं राम दुःख विन्से सुख कियो विश्राम- बसंत




 इस विषय में चर्चा से पहले श्री भगवान द्वारा भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय में कहे वचनों का स्मरण आवश्यक है.
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।16।
इस संसार में दो प्रकार के पुरुष हैं एक क्षर अर्थात नाशवान दूसरा अक्षर अविनाशी। इनमें जो भूत हैं जो देह है जो जड़ प्रकृति है वह नाशवान पुरुष है क्षर है। जो जीव है वह अविनाशी है।

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।17।
इसमें भी अधिक आश्चर्य की बात यह कि इन क्षर अक्षर दो पुरुषों के अलावा एक तीसरा पुरुष भी है। यह पुरुष अत्यन्त श्रेष्ठ है और जब यह होता है तो दोनों पुरुष क्षर और अक्षर के अस्तित्व को समाप्त कर देता है. सर्वत्र यही उत्तम पुरुष व्याप्त हो जाता है। यह पुरुषोत्तम तीनों लोकों में अर्थात सृष्टि के कण कण में व्याप्त होकर सृष्टि को एक अंश से धारण किये है। यह उत्तम पुरुष ही अव्यक्त परमात्मा अथवा विशुद्ध आत्मा है।

अब उक्त वचनों  को लेते हुए सार शब्द की चर्चा  करते हैं.

जब सार शब्द (ज्ञान) प्रगट होने लगता है  तो जीव स्वभाव और अज्ञान सब नष्ट होने लगता है और यह ज्ञान फैलता हुआ पूर्ण हो जाता है तब न अज्ञान रहता है न जीव. सृष्टि पूर्ण रूप से ज्ञान के परमाणुओं से बनी है शुद्ध व पूर्ण रूप में परमात्मा है. जड़ रूप में पदार्थ है और बीच की मिलीजुली स्थिति जीव है.
इस पूर्ण व शुद्ध ज्ञान - सार शब्द  की अनुभूति होनी आवश्यक है. यह ईश्वरीय आवाज है जिसमें कोई ध्वनि नहीं है. किसी भी मन्त्र द्वारा आप ईश्वर को पुकारते हैं, याद करते हैं, सुमिरन करते हैं पर जब इसका उलटा हो जाय प्रभु तुम्हारा सुमिरन करने लगें तब जानो तुम्हारी प्रार्थना, सुमिरन कबूल होने लगा है. प्रभु के सुमिरन का आभास मात्र होते ही आप आनंद में आने लगते हो. अब सुमिरन जो तुम करते थे वह उलट गया. अब प्रभु सुमिरन करने लगे हैं.
इसलिए बाल्मीकि जी के लिए कहा जाता है-
उलटा नाम जपत जग जाना बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना.
मरा मरा की तो कहानी बना दी लोगों ने.
अब उलटे सुमिरन की स्थिति  बडती  जाती  है तब अपने मजे का मजा आता है. इस स्थिति में कबीर कहते हैं-
सुमिरन मेरा प्रभु करें मैं पाऊं विश्राम.
अब आपको स्पस्ट हो गया होगा सार शब्द क्या है जिसके लिए कबीर कहते हैं-
सार शब्द जाने बिना कागा हंस न होय.
कोवा अज्ञान और जीव का प्रतीक है, हंस ज्ञान का. इसलिए हंस वही हो सकता है जिसे महसूस होने लगे की उसके अन्दर बैठकर परमात्मा उसे सुमिरन करने लगे हैं. अब यह उलटा सुमिरन बड़ने लगता है और आप की असली आध्यात्मिक यात्रा प्रारम्भ हो जाती है.
इस सुमिरन का ज्ञान कराने के लिए श्री भगवान् कृष्ण चन्द्र जी ने उद्धव जी को ब्रज में गोपियों के पास भेजा था. यही असल में सुरत की धार है जिसे पाकर जीव आनंदित हो उठता है.
हनुमान जी के ह्रदय में बैठ  कर श्री राम का हनुमान जी का सुमिरन ही सार शब्द है. यह सार शब्द सबके लिए है. इसका कोई नाम नहीं है. बिना ध्वनि के अन्दर प्रगट होता है. इसी के कारण आपके जीवन में रोनक है. बस आपको पता नहीं है. आपके छोटे से छोटे कार्य में वह परमात्मा आपसे बात करते हैं. अभी आपको पता नहीं है उलटा सुमिरन होते ही आपकी परमात्मा से बात होने लगेगी. कोशिश करें. यह रहस्य आपको स्वयं अनुभूत होगा. आप  सहज रूप से परमात्मा से जुड़ जायेंगे.
तभी कबीर कहते हैं-
जब ते उलटि भए हैं राम
दुःख विन्से सुख कियो विश्राम.....
उलटि भी सुख सहज समाधी
आपु पछानै आपै आप
अब मनु उलटि सनातन हुआ.....









Wednesday 13 February 2013

श्री कृष्ण स्तुति - नारायणम नारायणम श्री कृष्ण नारायणम - बसन्त



(सहज ध्यान, शान्ति  और आनन्द के लिए श्री कृष्ण की इस स्तुति का  नित्यप्रति गायन करें.)

नारायणम नारायणम श्री कृष्ण नारायणम
अच्युतम अच्युतम श्री कृष्ण नारायणम          
गोविन्दम गोविन्दम श्री कृष्ण नारायणम  
गोपालम गोपालम श्री कृष्ण नारायणम
केशवम केशवम श्री कृष्ण नारायणम
वासुदेवम वासुदेवम श्री कृष्ण नारायणम
देवतं देवतानाम  श्री कृष्ण नारायणम
आत्मोहम आत्मानाम श्री कृष्ण नारायणम
भूतात्मा भूतभावन  श्री कृष्ण नारायणम
ॐ कारो विश्वोहम  श्री कृष्ण नारायणम
पुरुषोतमः परम पुरुषः  श्री कृष्ण नारायणम
अव्ययः अव्यक्तः  श्री कृष्ण नारायणम
ईश्वरः पुष्कराक्ष  श्री कृष्ण नारायणम
अनादिनिधनः दुराधर्षः श्री कृष्ण नारायणम
सर्वेश्वरः पुण्डरीकाक्ष  श्री कृष्ण नारायणम
महामाया महाबुद्धि  श्री कृष्ण नारायणम
महाविद्या बीजरूपम श्री कृष्ण नारायणम
महाशक्ति महाविष्णु  श्री कृष्ण नारायणम
कामः कामप्रदः कृष्ण श्री कृष्ण नारायणम
अधियज्ञ ज्ञान-उत्तम  श्री कृष्ण नारायणम
अकाल मूरत माहाकालः श्री कृष्ण नारायणम
स्वयभू महाशंभू श्री कृष्ण नारायणम
शिवोहम शिवोहम श्री कृष्ण नारायणम
नामोहम नामोहम श्री कृष्ण नारायणम
सच्चिदानन्द ऋतम ब्रह्म श्री कृष्ण नारायणम
नारायणम नारायणम श्री कृष्ण नारायणम
नारायणम नारायणम श्री कृष्ण नारायणम

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Sunday 29 January 2012

श्री कृष्ण - प्रो . बसन्त जोशी


                                श्री कृष्ण
श्री भगवान तुम कहते हो मैं तेरी आत्मा हूँ, मैं ही तेरा  वास्तविक मैं हूँॐकार मेरा नाम है. मैं जब भी तेरे अंदर प्रकट होता हूँ तेरी प्रकृति और तेरे जीव भाव का नाश कर देता हूँ.

पर मैं तो आंख का अंधा कान का बहरा हूँ, मेरा अहँकार इतना बड़ा है कि मैं अपने श्री कृष्ण की बात भी नहीं मानता. मुझे अपने अंदर के कृष्ण नहीं दिखायी देते. मैं तो उन्हें मंदिरों में, गली कूचों में ढूँढता हूँ. उनकी बात जो भगवद्गीता में उन्होंने  बार बार कही  मैं जानना भी नहीं चाहता.
हे कृष्ण मुझे बताओ कैसे होगी मुझे स्वरूप अनुभूति. मेरी आत्मा,  मेरे कृष्ण मैनें तुम्हें भुला दिया.

Saturday 28 January 2012

श्री कृष्ण, 16108 रानियाँ और गोपियों का प्रेम - भगवान श्री कृष्ण उनके साथ इस प्रकार विहार करते थे मानो कोई गजराज हथिनियों से घिरकर उनके साथ क्रीड़ा का रहा हो-Prof.Basant Joshi




श्री कृष्ण अकाम पुरुष थे उनका गोपियों और अपनी  रानियों के साथ प्रेम और काम डॉक्टर की दवाई की तरह था जो दवाई देते हुए उसके गुण दोष को जानता है पर उससे अलग रहता है.

श्री कृष्ण, 16108 रानियाँ और  गोपियों का प्रेम

योगेश्वर श्री कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन चरित्र विलक्षणताओं से भरा है. उनमें सर्वाधिक विलक्षण उनसे जार (पति) सम्बन्ध  की चाहना रखने वाली ब्रज गोपियों का प्रेम और 16108 विवाह जिनसे श्री कृष्ण चन्द्र जी के 10-10 पुत्र हुए बड़ा रोचक और अद्भुत है. इस विषय में भक्त, विद्वान भाष्यकारों द्वारा बहुत कुछ लिखा गया, किसी ने इसे अध्यात्म से जोड़ा तो किसी ने इसका तात्कालिक परिस्थितियों से सबंध जोड़ डाला. सभी कथा वाचक विद्वानों की जीभ श्री कृष्ण और ब्रज गोपियों के रास को खुलकर नहीं कह पाती, वह अटक जाती है, सूखने लगती है क्योंकि प्रेम और sex उन विद्वानों की दृष्टि में पाप है. बस यह कहकर सब संतुष्ट हो लेते हैं श्री कृष्ण ईश्वर थे और ब्रज गोपियों के साथ प्रेम अलौकिक था. इसी प्रकार कुछ शरीर के स्नायु तंत्र से 16108 रानियों को जोड़ते हैं. स्वयं दूषित सोच के कारण इन प्रसंगों को कोई कथाकार सही ढंग से नहीं कहता.
यह परम सत्य है कि श्री कृष्ण चन्द्र ईश्वर थे. यदि वैज्ञानिक भाषा में कहा जाया तो cosmic mind को रखते थे. मानवीय शरीर में उनके द्वारा साधरण, विशिष्ट एवम अलौकिक कार्य भिन्न भिन्न समयों में किये गये इसलिए तत्कालीन लोगों द्वारा वह कहीं साधारण मनुष्य जाने गये तो कहीं परम पुरुषोत्तम ईश्वर.
त्रेतायुग में श्री राम, cosmic mind के अन्य उदाहरण हैं. श्री राम का चरित्र सामाजिक मर्यादाओं में बंधा है. वह एक पत्नी व्रता हैं. परन्तु द्वापर में श्री कृष्ण सामाजिक मान्यताओं का खंडन करते हुए स्वभाविक जीवन जीते हैं. यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि श्री कृष्ण चन्द्र जी को 16108 विवाह और ब्रज गोपिकाओं से रास रचाने की क्या आवश्कता पड़ी.

श्री भगवान भगवद्गीता में कहते हैं


सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेनप्रसविष्यध्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ।10।

प्रजापति ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आदि में स्वभाव सहित प्राणियों को रचकर कहा कि अपने अपने स्वभाव के आधार पर कर्म करते हुए तुम वृद्धि को प्राप्त हो। तुम्हारा स्वभाव तुम्हें तुम्हारे स्वभावानुसार इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो अर्थात स्वधर्म आचरण बिना आडम्बर के निष्काम भाव से करना है। बाहरी दिखावे के लिए अथवा दूसरे के स्वभाव से प्रभावित होकर आचरण मत करना क्योंकि दूसरे के स्वभाव में तुम उलझ जावोगे तथा अनासक्त आचरण नहीं हो पावेगा।


कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ।17।

श्री भगवान कहते हैं कर्म को जानना चाहिये अकर्म को जानना चाहिये और विकर्म को जानना चाहिये। कर्म क्या है? ईश्वर ने जीवों के कर्म के अनुसार सृष्टि की रचना करने का जो संकल्प किया उसका नाम कर्म है। कर्महीनता अकर्म है और निषिद्ध कर्म ही विकर्म है। स्वभाव के विपरीत कर्म भी, विकर्म ही हैं। इसको अच्छी प्रकार जान लेना चाहिए क्योंकि कर्म की गति अत्याधिक सूक्ष्म है और उसे समझना बहुत कठिन है।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ।12-4।

कर्म के सिवाय देने वाला अन्य कोई नहीं है। जैसा कर्म वैसा फल अर्थात संसार में कर्म से ही फल प्राप्ति होती है, जैसा बीज होगा या जिस प्रकृति का बीज होगा वैसी फसल होगी। इसी प्रकार जिस मनुष्य की पूजन सम्बन्धी जैसी भावना होती है, वैसा फल उसे मिलता है


अब इस सूत्रके अनुसार श्री भगवान के लीला रहस्य को जानने का प्रयास.
श्री कृष्ण एक दिन में ही पूर्ण पुरुष परब्रह्म श्री विष्णु स्थिति को प्राप्त योगी नहिं बने बल्कि उन्हें भी कॉस्मिक mind स्थिति को प्राप्त करने में अनेक युग और जन्म लगे. भगवद गीता में स्वयं श्री कृष्ण कहते हैं-


बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।5।

श्री भगवान बोले:- हे अर्जुन, तेरे और मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, उन सबको मैं जानता हूँ परन्तु तू उनको नहीं जानता है।

श्री कृष्ण का जीवन भी अनेक युगों का जीवन है जो सामान्य मनुष्य से ब्रह्मांडीय मस्तिष्क की विकास गाथा है. भागवत में प्रसंग है कि राजा धर्म और उनकी पत्नी मूर्ती के गर्भ से नारायण का जन्म हुआ. इनके छोटे भाई का नाम नर (अर्जुन) था. इन्होंने बद्रीनाथ के समीप नर नारायण पर्वत पर कठोर तप किया और विष्णु तत्त्व अथवा ब्रह्मत्व को प्राप्त हुए परन्तु नर का जीव भाव समाप्त नहीं हुआ.
इन बहुत से जन्मों में अनेक कन्याएँ, स्त्रियाँ किसी न किसी रूप में श्री कृष्ण के जीवन में आयी होंगी. योग के अभिलाषी श्री कृष्ण अपने आरंभिक जन्मों में अकाम  होने के लिए सतत प्रयत्नशील रहे होंगे. इन विभिन्न जन्मों में अनेक स्र्त्रीयो का उनके प्रति प्रबल अनुराग रहा होगा. यही नहीं अनेक योग साधक स्रियाँ भी बरबस उनके प्रति अनुराग भाव से आकर्षित हुई होंगी परन्तु उन जन्मों में उनका श्री कृष्ण से संयोग नहीं हुआ होगा. इस प्रबल आसक्ति और अनुराग के कारण वह कन्याएँ श्री कृष्ण तत्व अर्थात आत्मतत्व को उपलब्ध नहीं हो सकी थी. श्री कृष्ण पूर्ण पुरुष थे, cosmic mind थे अतः वह अगला पिछला सब जानते थे.

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।5।
उन सबको मैं जानता हूँ परन्तु तू उनको नहीं जानता है।

इसलिए श्री कृष्ण ने 16108 प्रबल आसक्ति और अनुराग से पूर्ण  कन्याओं से विवाह कर सबको १०-१० पुत्र दिए. जिससे उनका काम भाव तृप्त होकर सदा सदा के लिए नष्ट हो जाये और वह आत्मतत्त्व को उपलब्ध हों.
भागवत के दसवें स्कंध अध्याय 90 के कुछ प्रसंग-
परीक्षित भगवान इस प्रकार उनके साथ विहार करते थे. उनकी चाल ढाल बातचीत, चितवन मुस्कान,हास-विलास,आलिंगन आदि से रानियों की वृत्ति सदा उनकी ओर खिचीं रहती थी.१२.
भगवान श्री कृष्ण उनके साथ इस प्रकार विहार करते थे मानो कोई गजराज हथिनियों से घिरकर उनके साथ क्रीड़ा का रहा हो.११.
मलयानिल हमने तेरा क्या बिगाड़ा है जो तू हमारे हृदय में काम का संचार कर रहा है.१९.
आदि पति पत्नी के लीला प्रसंग हैं.

इसी प्रकार महारास में श्री कृष्ण गोपियों के काम को तृप्त करते हैं. भागवत के दसवें स्कंध अध्याय 33 के कुछ प्रसंग-
जैसे थका हुआ गजराज किनारों को तोड़ता हुआ हथिनियों के साथ जल में घुसकर क्रीड़ा करता है......वैसे श्री कृष्ण ने गोपियों के साथ जल मेंप्रवेश किया.२३.
यमुनाजल में गोपियों ने प्रेमभरी चितवन से भगवान की ओर देखकर हंसहंस कर उन पर इधर उधर से जल की खूब बोछारें डालीं.....इस प्रकार श्री कृष्ण ने अपनी थकान दूर करने के लिए गजराज के समान यमुनाजल में विहार किया.२४.
.....इस प्रकार श्री कृष्ण विचरण करने लगे, जैसे मदमत्त गजराज हथिनियों के झुण्ड के साथ घूम रहा हो.२५.
आदि प्रमी प्रेमिका के विहार के अनेक प्रसंग हैं.
यहाँ यह भी जानना महत्वपूर्ण है कि श्री कृष्ण ने गोपियों से विवाह न करके उनको एक ही बार में अपने प्रेम और काम से संतुष्ट कर सदा सदा के लिए अकाम कर दिया.
यह गोपियाँ पूर्व जन्मों से लगातार योग साधन करते आ रहीं थीं. केवल श्री कृष्ण के प्रति काम भाव के कारण उनको आत्मतत्त्व का बोध नहीं हो पाया था और श्री कृष्ण द्वारा एक बार किया प्रेम और काम उन्हें सदा सदा के लिए आत्मज्ञानी बना गया. परन्तु श्री कृष्ण की रानियाँ उनसे अनुराग रखने वाली वेद मार्ग में चलने वाली स्त्रियाँ थीं. अतः श्री कृष्ण के साथ पूर्ण गृहस्थ जीवन जीकर ही वह काम से मुक्त हो पायीं और आत्म तत्त्व को प्राप्त कर सकीं. इनमें केवल रुक्मणीजी ही आत्मज्ञानी थी. उन्हें विज्ञान की भाषा में पूर्ण विकसित मस्तिष्क को रखने वाली स्त्री कह सकते हैं.
श्री कृष्ण अकाम पुरुष थे उनका गोपियों और रानियों के साथ प्रेम और काम डॉक्टर की दवाई की तरह था जो दवाई देते हुए उसके गुण दोष को जानता है पर उससे अलग रहता है.
श्री भगवान के गीता में वचन हैं-

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।9-४।

मेरे जन्म व कर्म दिव्य और अलौकिक हैं अर्थात अजन्मा होकर भी में जन्म लेता हूँ, अक्रिय होकर भी कर्म करता हूँ। जो मनुष्य मेरे जन्म व कर्म के रहस्य को जानते हैं वह शरीर त्याग कर पुनः जन्म और मृत्यु को प्राप्त नहीं होते बल्कि मुझ (आत्म स्थिति) को प्राप्त होते हैं।

श्री कृष्ण का संपूर्ण जीवन स्वाभविक जीवन है, भगवद्गीता में वह बार बार स्वाभाविक जीवन जीने का उपदेश देते हैं. इसी कारण हिन्दुओं में बहु पत्नी प्रथा को मान्यता थी जिसे हिन्दू कोड बिल द्वारा समाप्त कर दिया गया. श्री राम और उनके भाईयों के अलावा अधिकांश श्रेष्ठ जनों के जीवन प्रसंग बहु पत्नी प्रथा से जुड़े हैं. जीव विज्ञान  की दृष्टि से भी पुरुष polygamous होता है और स्त्री monogamous होती है. पुरुष के एक समय के वीर्य से करोड़ो मनुष्यों का जन्म हो सकता है परन्तु स्त्री में एक ओवा बनता है. यद्यपि कुछ स्त्रियाँ इसका अपवाद हो सकती हैं. परन्तु यह स्त्री पुरुष का स्वाभाविक गुण है. इस्लाम भी बहु पत्नी प्रथा को इजाजत देता है. क्या हिंदू आज अस्वाभाविक जीवन तो नहीं जी रहा है? समाज में फैले व्यभिचार के लिए कहीं यह एक प्रमुख कारण तो नहीं. इन बातों के उत्तर खोजने ही होंगे तभी एक स्वाभाविक समाज का अभ्युदय होगा.
काम सृष्टि का प्रत्यक्ष कारण है अतः घृणा की वस्तु नहीं है. हिन्दुओं में गुरु और ईश पूजा के साथ काम पूजा का विधान था अतः इसे जानने व समझने की आवश्कता है. मार विजय के बाद ही बोध प्राप्त होता है और मार विजय काम को प्राप्त कर, काम को जानकर ही की जा सकती है. क्योंकि काम को जानकर ही काम को निग्रह किया जा सकता है.

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