निसंदेह कबीर तत्त्वदर्शी संत थे. आजकल जगत गुरु बन कर कबीर के चेले इस तत्त्वदर्शी संत के आधे अधूरे ज्ञान को बता कर अपनी पूजा कराने की चाह में कुछ भी कहने और करने के लिए तैयार हैं. इस प्रसंग में उपनिषद के वचन सहसा स्मरण में आ जाते हैं-
अंधा अंधों को ज्ञान दे रहा है.
कबीर के कुछ प्रमुख सिद्धांत
1- तेरा साईं तुझ में - तेरा ईश्वर तेरे अन्दर है. इसी सन्दर्भ में कबीर कहते हैं
मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे मैं तो तेरे पास - अरे मनुष्य मुझे कहाँ ढूढने चला मैं तो तेरे पास हूँ .
कबीर के चेले कहते हैं वह 7, 14, 24 ,28 ब्रह्मांडों के ऊपर बैठा है.
2- 'गुण में निरगुन निरगुन में गुन, बात छाडी क्यों बहिए.'
कबीर कहते हैं लोग भ्रम में हैं कोई कहता है ईश्वर सगुण है कोइ उसे निरगुण कहता है पर दोनों ही नहीं जानते . परमात्मा निराकार भी है और साकार भी है. एक दृष्टि अधूरी है. कबीर इसे मन का धोखा कहते हैं.
कबीर ने सावधान किया कोई उसे सगुण कहेगा कोई निरगुण, निराकार पर वह ऐसा तत्त्व है जिसके विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह सभी कुछ है.
'अलख न कथना जाई.'
वेदान्त और भगवद्गीता इसी अलख को अव्यक्त कहते हैं.
सब धर्मों के लोग कहते हैं कि परमात्मा सर्व शक्तिमान है. सर्व शक्तिमान मान कर भी उसे अधूरा मानते हैं. निराकार को मानने वाले उसे आधा ही मानते हैं इसी प्रकार साकार को मानने वाले उसे आधा ही मानते हैं. क्या सर्व शक्तिमान परमात्मा जो निराकार है उसमें साकार होने की सामर्थ नहीं है? इसी प्रकार सर्व शक्तिमान परमात्मा जो साकार है उसमें निराकार होने की सामर्थ नहीं है तो फिर कैसा और क्यों सर्व शक्तिमान हुआ. सर्व शक्तिमान को दोनों रूपों में स्वीकार करना होगा. यही नहीं उसे सभी गुण दोषों के साथ स्वीकारना होगा तभी पूर्णता है. वह यदि निराकार है तो सृष्टि भी वही है.
पर कबीर के चेले कहते हैं ईश्वर सगुण साकार है, वह कबीर परमात्मा है. वह 7, 14, 24 ,28ब्रह्मांडों के ऊपर सतलोक में शरीर रूप में विराजमान है तो कुछ कहते हैं वह निर्गुण निराकार है. यह दोनों दृष्टियाँ अधूरी हैं.
तुलसीदास लिखते हैं-
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा
श्री भगवान् गीता में कहते हैं अव्यक्त और व्यक्त मैं ही हूँ.
ईशावास्योपनिषद का प्रारम्भ यहीं से होता है - इस संसार मैं जो कुछ भी है उस में ईश्वर का वास है.
कबीर का पूरा दर्शन भगवद्गीता और वेदान्त से प्रभावित है. भगवद्गीता में श्री भगवान् अपनी तीनों स्थितियों अधियज्ञ, अधिदेव और अधिभूत को बताते हुए कहते हैं कि मैं सब भूतों में न होते हुए भी सब को धारण करता हूँ.
चूँकि कबीर भक्त और कवि भी थे इसलिए इस दर्शन को प्रेम की चाशनी के साथ उन्होंने परोसा.
कबीर ने ज्ञान से उपलब्ध प्रेम को अंतिम स्थिति माना है
राम सनेही ना मरे
ईश्वर के अनेक नाम आपने दिए हैं, सब एक ही के नाम हैं फिर यह कहना मेरा भगवान् तेरे भगवान् से बड़ा है. हिन्दू, मुसलमान ईसाई ,शैव, शाक्त, आदि आदि यही करते आ रहे हैं. गीता में भगवान् स्वयं कहते हैं मैं परम ज्ञान हूँ . इसी बात को कबीर कहते हैं
नूरै ओढ़न नूरे डासन, नूरै का सिरहाना
वहां ज्ञान ही रजाई है ,ज्ञान ही बिस्तरा है और ज्ञान ही तकिया है.
ज्ञानी मेरा रूप है.(भगवद्गीता). यहाँ फिर धोखा न खा जाना, यह समझ लें कि ज्ञान का अर्थ है अस्मिता का अनुभूत सत्य, यही बोध है.
कबीर के एक चेले ने तो अपने को साकार कबीर का अवतार घोषित कर दिया. आप खुद सोचें साकार कबीर निराकार हुए बिना दूसरी देह में कैसे आ सकते हैं. वह कहते हैं कबीर जी ने कई मुर्दों को ज़िंदा किया. किया होगा. पर साकार कबीर जी के वर्तमान अवतार एक मरी मक्खी ज़िंदा कर दें तो यह विश्व उनके दर्शन से धन्य हो जाएगा.
हिन्दूओं के पुराण कथा साहित्य है .हिन्दू दर्शन जानना है तो वेदान्त और भगवद्गीता को समझने का प्रयास करें. पुराणों में भिन्न भिन्न सम्प्रदायों ने अपने अपने इष्ट को सृष्टि का आदि कारण परम परमात्मा बताने का अपने तरीके से प्रयास किया है. यथार्थ जानना है तो वेदान्त और भगवद्गीता का अध्ययन करें. दूसरे के मत की निंदा का कारण आपका अहंकार है और कबीर कहते हैं-
1- "आपन को न सराहिये, पर निन्दिये नहिं कोय।"
2- "जब मैं था तब हरि नहीं"
अंत में मात्र इतना ही निवेदन है कि सृष्टि के प्रत्येक परमाणु का अपना अस्तित्त्व है और इसी अस्तित्व का अपने में बोध पूर्णता है.