Saturday, 28 January 2012

श्री कृष्ण, 16108 रानियाँ और गोपियों का प्रेम - भगवान श्री कृष्ण उनके साथ इस प्रकार विहार करते थे मानो कोई गजराज हथिनियों से घिरकर उनके साथ क्रीड़ा का रहा हो-Prof.Basant Joshi




श्री कृष्ण अकाम पुरुष थे उनका गोपियों और अपनी  रानियों के साथ प्रेम और काम डॉक्टर की दवाई की तरह था जो दवाई देते हुए उसके गुण दोष को जानता है पर उससे अलग रहता है.

श्री कृष्ण, 16108 रानियाँ और  गोपियों का प्रेम

योगेश्वर श्री कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन चरित्र विलक्षणताओं से भरा है. उनमें सर्वाधिक विलक्षण उनसे जार (पति) सम्बन्ध  की चाहना रखने वाली ब्रज गोपियों का प्रेम और 16108 विवाह जिनसे श्री कृष्ण चन्द्र जी के 10-10 पुत्र हुए बड़ा रोचक और अद्भुत है. इस विषय में भक्त, विद्वान भाष्यकारों द्वारा बहुत कुछ लिखा गया, किसी ने इसे अध्यात्म से जोड़ा तो किसी ने इसका तात्कालिक परिस्थितियों से सबंध जोड़ डाला. सभी कथा वाचक विद्वानों की जीभ श्री कृष्ण और ब्रज गोपियों के रास को खुलकर नहीं कह पाती, वह अटक जाती है, सूखने लगती है क्योंकि प्रेम और sex उन विद्वानों की दृष्टि में पाप है. बस यह कहकर सब संतुष्ट हो लेते हैं श्री कृष्ण ईश्वर थे और ब्रज गोपियों के साथ प्रेम अलौकिक था. इसी प्रकार कुछ शरीर के स्नायु तंत्र से 16108 रानियों को जोड़ते हैं. स्वयं दूषित सोच के कारण इन प्रसंगों को कोई कथाकार सही ढंग से नहीं कहता.
यह परम सत्य है कि श्री कृष्ण चन्द्र ईश्वर थे. यदि वैज्ञानिक भाषा में कहा जाया तो cosmic mind को रखते थे. मानवीय शरीर में उनके द्वारा साधरण, विशिष्ट एवम अलौकिक कार्य भिन्न भिन्न समयों में किये गये इसलिए तत्कालीन लोगों द्वारा वह कहीं साधारण मनुष्य जाने गये तो कहीं परम पुरुषोत्तम ईश्वर.
त्रेतायुग में श्री राम, cosmic mind के अन्य उदाहरण हैं. श्री राम का चरित्र सामाजिक मर्यादाओं में बंधा है. वह एक पत्नी व्रता हैं. परन्तु द्वापर में श्री कृष्ण सामाजिक मान्यताओं का खंडन करते हुए स्वभाविक जीवन जीते हैं. यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि श्री कृष्ण चन्द्र जी को 16108 विवाह और ब्रज गोपिकाओं से रास रचाने की क्या आवश्कता पड़ी.

श्री भगवान भगवद्गीता में कहते हैं


सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेनप्रसविष्यध्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ।10।

प्रजापति ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आदि में स्वभाव सहित प्राणियों को रचकर कहा कि अपने अपने स्वभाव के आधार पर कर्म करते हुए तुम वृद्धि को प्राप्त हो। तुम्हारा स्वभाव तुम्हें तुम्हारे स्वभावानुसार इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो अर्थात स्वधर्म आचरण बिना आडम्बर के निष्काम भाव से करना है। बाहरी दिखावे के लिए अथवा दूसरे के स्वभाव से प्रभावित होकर आचरण मत करना क्योंकि दूसरे के स्वभाव में तुम उलझ जावोगे तथा अनासक्त आचरण नहीं हो पावेगा।


कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ।17।

श्री भगवान कहते हैं कर्म को जानना चाहिये अकर्म को जानना चाहिये और विकर्म को जानना चाहिये। कर्म क्या है? ईश्वर ने जीवों के कर्म के अनुसार सृष्टि की रचना करने का जो संकल्प किया उसका नाम कर्म है। कर्महीनता अकर्म है और निषिद्ध कर्म ही विकर्म है। स्वभाव के विपरीत कर्म भी, विकर्म ही हैं। इसको अच्छी प्रकार जान लेना चाहिए क्योंकि कर्म की गति अत्याधिक सूक्ष्म है और उसे समझना बहुत कठिन है।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ।12-4।

कर्म के सिवाय देने वाला अन्य कोई नहीं है। जैसा कर्म वैसा फल अर्थात संसार में कर्म से ही फल प्राप्ति होती है, जैसा बीज होगा या जिस प्रकृति का बीज होगा वैसी फसल होगी। इसी प्रकार जिस मनुष्य की पूजन सम्बन्धी जैसी भावना होती है, वैसा फल उसे मिलता है


अब इस सूत्रके अनुसार श्री भगवान के लीला रहस्य को जानने का प्रयास.
श्री कृष्ण एक दिन में ही पूर्ण पुरुष परब्रह्म श्री विष्णु स्थिति को प्राप्त योगी नहिं बने बल्कि उन्हें भी कॉस्मिक mind स्थिति को प्राप्त करने में अनेक युग और जन्म लगे. भगवद गीता में स्वयं श्री कृष्ण कहते हैं-


बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।5।

श्री भगवान बोले:- हे अर्जुन, तेरे और मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, उन सबको मैं जानता हूँ परन्तु तू उनको नहीं जानता है।

श्री कृष्ण का जीवन भी अनेक युगों का जीवन है जो सामान्य मनुष्य से ब्रह्मांडीय मस्तिष्क की विकास गाथा है. भागवत में प्रसंग है कि राजा धर्म और उनकी पत्नी मूर्ती के गर्भ से नारायण का जन्म हुआ. इनके छोटे भाई का नाम नर (अर्जुन) था. इन्होंने बद्रीनाथ के समीप नर नारायण पर्वत पर कठोर तप किया और विष्णु तत्त्व अथवा ब्रह्मत्व को प्राप्त हुए परन्तु नर का जीव भाव समाप्त नहीं हुआ.
इन बहुत से जन्मों में अनेक कन्याएँ, स्त्रियाँ किसी न किसी रूप में श्री कृष्ण के जीवन में आयी होंगी. योग के अभिलाषी श्री कृष्ण अपने आरंभिक जन्मों में अकाम  होने के लिए सतत प्रयत्नशील रहे होंगे. इन विभिन्न जन्मों में अनेक स्र्त्रीयो का उनके प्रति प्रबल अनुराग रहा होगा. यही नहीं अनेक योग साधक स्रियाँ भी बरबस उनके प्रति अनुराग भाव से आकर्षित हुई होंगी परन्तु उन जन्मों में उनका श्री कृष्ण से संयोग नहीं हुआ होगा. इस प्रबल आसक्ति और अनुराग के कारण वह कन्याएँ श्री कृष्ण तत्व अर्थात आत्मतत्व को उपलब्ध नहीं हो सकी थी. श्री कृष्ण पूर्ण पुरुष थे, cosmic mind थे अतः वह अगला पिछला सब जानते थे.

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।5।
उन सबको मैं जानता हूँ परन्तु तू उनको नहीं जानता है।

इसलिए श्री कृष्ण ने 16108 प्रबल आसक्ति और अनुराग से पूर्ण  कन्याओं से विवाह कर सबको १०-१० पुत्र दिए. जिससे उनका काम भाव तृप्त होकर सदा सदा के लिए नष्ट हो जाये और वह आत्मतत्त्व को उपलब्ध हों.
भागवत के दसवें स्कंध अध्याय 90 के कुछ प्रसंग-
परीक्षित भगवान इस प्रकार उनके साथ विहार करते थे. उनकी चाल ढाल बातचीत, चितवन मुस्कान,हास-विलास,आलिंगन आदि से रानियों की वृत्ति सदा उनकी ओर खिचीं रहती थी.१२.
भगवान श्री कृष्ण उनके साथ इस प्रकार विहार करते थे मानो कोई गजराज हथिनियों से घिरकर उनके साथ क्रीड़ा का रहा हो.११.
मलयानिल हमने तेरा क्या बिगाड़ा है जो तू हमारे हृदय में काम का संचार कर रहा है.१९.
आदि पति पत्नी के लीला प्रसंग हैं.

इसी प्रकार महारास में श्री कृष्ण गोपियों के काम को तृप्त करते हैं. भागवत के दसवें स्कंध अध्याय 33 के कुछ प्रसंग-
जैसे थका हुआ गजराज किनारों को तोड़ता हुआ हथिनियों के साथ जल में घुसकर क्रीड़ा करता है......वैसे श्री कृष्ण ने गोपियों के साथ जल मेंप्रवेश किया.२३.
यमुनाजल में गोपियों ने प्रेमभरी चितवन से भगवान की ओर देखकर हंसहंस कर उन पर इधर उधर से जल की खूब बोछारें डालीं.....इस प्रकार श्री कृष्ण ने अपनी थकान दूर करने के लिए गजराज के समान यमुनाजल में विहार किया.२४.
.....इस प्रकार श्री कृष्ण विचरण करने लगे, जैसे मदमत्त गजराज हथिनियों के झुण्ड के साथ घूम रहा हो.२५.
आदि प्रमी प्रेमिका के विहार के अनेक प्रसंग हैं.
यहाँ यह भी जानना महत्वपूर्ण है कि श्री कृष्ण ने गोपियों से विवाह न करके उनको एक ही बार में अपने प्रेम और काम से संतुष्ट कर सदा सदा के लिए अकाम कर दिया.
यह गोपियाँ पूर्व जन्मों से लगातार योग साधन करते आ रहीं थीं. केवल श्री कृष्ण के प्रति काम भाव के कारण उनको आत्मतत्त्व का बोध नहीं हो पाया था और श्री कृष्ण द्वारा एक बार किया प्रेम और काम उन्हें सदा सदा के लिए आत्मज्ञानी बना गया. परन्तु श्री कृष्ण की रानियाँ उनसे अनुराग रखने वाली वेद मार्ग में चलने वाली स्त्रियाँ थीं. अतः श्री कृष्ण के साथ पूर्ण गृहस्थ जीवन जीकर ही वह काम से मुक्त हो पायीं और आत्म तत्त्व को प्राप्त कर सकीं. इनमें केवल रुक्मणीजी ही आत्मज्ञानी थी. उन्हें विज्ञान की भाषा में पूर्ण विकसित मस्तिष्क को रखने वाली स्त्री कह सकते हैं.
श्री कृष्ण अकाम पुरुष थे उनका गोपियों और रानियों के साथ प्रेम और काम डॉक्टर की दवाई की तरह था जो दवाई देते हुए उसके गुण दोष को जानता है पर उससे अलग रहता है.
श्री भगवान के गीता में वचन हैं-

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।9-४।

मेरे जन्म व कर्म दिव्य और अलौकिक हैं अर्थात अजन्मा होकर भी में जन्म लेता हूँ, अक्रिय होकर भी कर्म करता हूँ। जो मनुष्य मेरे जन्म व कर्म के रहस्य को जानते हैं वह शरीर त्याग कर पुनः जन्म और मृत्यु को प्राप्त नहीं होते बल्कि मुझ (आत्म स्थिति) को प्राप्त होते हैं।

श्री कृष्ण का संपूर्ण जीवन स्वाभविक जीवन है, भगवद्गीता में वह बार बार स्वाभाविक जीवन जीने का उपदेश देते हैं. इसी कारण हिन्दुओं में बहु पत्नी प्रथा को मान्यता थी जिसे हिन्दू कोड बिल द्वारा समाप्त कर दिया गया. श्री राम और उनके भाईयों के अलावा अधिकांश श्रेष्ठ जनों के जीवन प्रसंग बहु पत्नी प्रथा से जुड़े हैं. जीव विज्ञान  की दृष्टि से भी पुरुष polygamous होता है और स्त्री monogamous होती है. पुरुष के एक समय के वीर्य से करोड़ो मनुष्यों का जन्म हो सकता है परन्तु स्त्री में एक ओवा बनता है. यद्यपि कुछ स्त्रियाँ इसका अपवाद हो सकती हैं. परन्तु यह स्त्री पुरुष का स्वाभाविक गुण है. इस्लाम भी बहु पत्नी प्रथा को इजाजत देता है. क्या हिंदू आज अस्वाभाविक जीवन तो नहीं जी रहा है? समाज में फैले व्यभिचार के लिए कहीं यह एक प्रमुख कारण तो नहीं. इन बातों के उत्तर खोजने ही होंगे तभी एक स्वाभाविक समाज का अभ्युदय होगा.
काम सृष्टि का प्रत्यक्ष कारण है अतः घृणा की वस्तु नहीं है. हिन्दुओं में गुरु और ईश पूजा के साथ काम पूजा का विधान था अतः इसे जानने व समझने की आवश्कता है. मार विजय के बाद ही बोध प्राप्त होता है और मार विजय काम को प्राप्त कर, काम को जानकर ही की जा सकती है. क्योंकि काम को जानकर ही काम को निग्रह किया जा सकता है.

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