Tuesday, 20 December 2011

MIND - A journey of life to higher life.-Prof. Basant


In our earth there are millions of life species and man is the ultimate result of evolution. It  can be discribed as the  result of Gyan or evolution of mind. Though each and every mind is individual entity, broadly it can be divided in thirteen stages or types.

1.COSMIC MIND
2.FULLY DEVELOPED MIND
3.DEVELOPED MIND
4.OPTIMUM MIND
5.AVERAGE MIND
6.WEAK MIND
7.UNDER DEVELOPED MIND
8.APE MIND
9.MAMMALIAN MIND
10.LOWER ANIMAL MIND
11.INSECT MIND
12.VEGETATIVE MIND
13DEAD MIND

Vedant and Bhagwadgita tells us that fully developed mind is a librated Soul and cosmic mind is God. Generally people are having weak and average mind. Only one in one million is having optimum mind, one in ten million is having developed mind and one in one hundred million is having fully developed mind. Here I will quote two beautiful examples of developed and cosmic mind. In the stage of fully developed mind Christ said, ‘I and my father are one’, ‘aham brahmasmi’ is the same concept and  at the stage of cosmic mind Lord Krishna said. ‘I am the primeval seed of all beings and matter.’

............................................................................................................

Tuesday, 6 December 2011

हे मानव तू केवल मेरी इच्छा कर, मैं तुझे अवश्य मिलूँगा. -Prof. Basant



ईश्वर के विषय में जिज्ञासा होनी अति कठिन है.
ईश्वर क्या है यह ज्ञान होना और भी कठिन है.
इससे भी कठिन है ईश्वर के प्रति ज्ञान का निश्चयात्मक होना.
ईश्वरीय मार्ग अपनाना बहुत कठिन है.
ईश्वर का बोध किसी विरले को ही होता है.
शंकराचार्य कहते हैं-
मानव देह दुर्लभ परम उसमें भी विप्रत्व
ज्ञान वेद का अति कठिन उसमें भी विद्वत्व.
यहाँ विप्र शब्द का प्रयोग विद्या के अनुरागी के लिए हुआ है.
यह केवल अनेक जन्मों के शुभ परिणाम से ही संभव होता है. मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व और सत् पुरुष का संग और भी दुर्लभ है.
मनुष्यत्व- ईसा कहते हैं- धन्य हैं वे जो मन के दीन हैं. केवल इस वचन में मनुष्यत्व का राज छिपा है. सम्पूर्ण वैदिक प्रार्थनाएँ मनुष्यत्व के विकास के लिए ही हैं. सबके प्रति कृतज्ञता, अद्भुत है. यह मनुष्यत्व ही मुमुक्षत्व की ओर ले जाता है ओर उसे स्वाभाविक रूप से सत् पुरुष का संग मिलता है.
पर हित सरसि धर्म नहिं भाई.
प्रत्येक जीव सुखी हो.
सर्वे भवन्तु सुखिनः .
यदि आप परहित नहीं भी करते हैं तो मन से दीन हो जायें. ईश्वर का राज्य आप के लिए खुल  जायेगा और मन से दीनता भी नहीं ला पाते हैं तो अपने स्वाभाविक कर्म में लगे रहें. इससे चित्त की उद्विग्नता समाप्त होती जायेगी मन दीन होने लगेगा.
यही मनुष्यत्व का मार्ग है. इसके बाद ही बोध का मार्ग स्वयं उपस्थित होता है.

......................................................................... 








Saturday, 27 August 2011

उपनिषद - मांडूक्योपनिषद्

                c-सर्वाधिकार सुरक्षित     
मांडूक्योपनिषद् / बसन्त
      Author of Hindi verse
Prof. BASANT PRABHAT JOSHI


यह उपनिषद शब्द ब्रह्म  की व्याख्या करता है. ॐकार शब्द ब्रह्म है. इसके अंतर्गत संसार की उत्पत्ति, विस्तार और लय और अनिर्वचनीय स्थिति अर्थात जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, समायी है. वही भूत, वर्तमान और भविष्य है, समय से परे भी वही है.


ॐ अक्षर ब्रह्म है
जगत है प्राकट्य
भूत भवि भव ॐकार है
काल परे भी सोहि.



जो कुछ है वह ब्रह्म है
नहिं परे पर ब्रह्म
चरण चार पर ब्रह्म के
जान विलक्षण ब्रह्म.

चार पाद जाग्रत, स्वप्नवत, सुसुप्त और अनिर्वचनीय जिसे आत्मा कहा है.




ब्रह्म जागृति जगत है
जो विस्तृत ब्रह्माण्ड
लोक सात हैं सप्त अंग
मुख उन्नीस हैं जान
पाद प्रथम वैश्वानर जिसका
भोगे जग दिव रात्रि.



स्वप्न भांति सम व्याप्त जग
ज्ञान ब्रह्म पर ब्रह्म
सात अंग उन्नीस मुख
तैजस दूसर पाद.



विशेष सात अंग सात लोक हैं. मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, सहत्रधार चक्र. उन्नीस मुख पांच कर्मेन्द्रियाँ,पांच ज्ञानेन्द्रियाँ.पांच प्राण- प्राण, अपान, समान,व्यान, उदान तथा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार.


नहीं कामना सुप्त में
नहीं स्वप्न नहिं दृश्य
सुप्त सम है ज्ञान घन
मुख चैतन्य परब्रह्म
आनन्द भोग का भोक्ता
तीसर पाद पर ब्रह्म.




यह सर्वेश्वर सर्वज्ञ है
अन्तर्यामी जान
सकल कारण जगत का
सभी भूत का यही निधान.



प्रज्ञा अंतर की नहीं
नहीं बाह्य का प्रज्ञ
भीतर बाहर प्रज्ञ ना
ना प्रज्ञाघन जान
नहीं प्रज्ञ अप्रज्ञ नहिं
नहीं दृष्ट अव्यवहार्य
नहीं ग्राह्य नहिं लक्षणा
नहीं चिन्त्य उपदेश
जिसका सार है आत्मा
जो प्रपंच विहीन
शान्त शिवम अद्वितीय जो
ब्रह्म का चोथा पाद.




वह आत्मा ॐकारमय
अधिमात्रा से युक्त
अ ऊ म तीन पाद हैं
मात्रा जान तू पाद.



अकार व्याप्त सर्वत्र है
आदि जाग्रत जान
वेश्वानर यह पाद है
जान प्राप्त सब काम.



उकार मात्रा दूसरी
और श्रेष्ठ अकार
उभय भाव है स्वप्नवत
तैजस दूसर पाद
जो है इसको जानता
प्राप्त ज्ञान उत्कर्ष
उस कुल में नहिं जन्म कोउ
जेहि न हिरण्यमय ज्ञान.

हिरण्यमय शब्द सूत्रात्मा, जीवात्मा के लिए है.





मकार तीसरी मात्रा
माप जान विलीन
सुसुप्ति स्थान सम देह है
प्रज्ञा तीसर पाद
जान माप सर्वस्व को
सब लय होत स्वभाव.




मात्रा रहित ॐकार है
ब्रह्म का चौथा पाद
व्यवहार परे प्रपंच परे
कल्याणम् है आत्म
आत्म बोध कर आत्म से
आत्म प्रवेशित नित्य.








Monday, 8 August 2011

UPANISHAD-कठोपनिषद्

                                                
कठोपनिषद् / बसन्त
       AUTHOR OF HINDI VERSE
 PROF. BASANT PRABHAT JOSHI

इस उपनिषद में धर्म और मृत्यु के देवता यमराज म्रत्यु मुख से छूटने का उपाय बताते हैं.

हे ईश्वर रक्षा करो
गुरु शिष्य की साथ
पालन कर, दो शक्ति हम
विद्या मय हो तेज
नहीं कभी विद्वेष हो
हम दोनों के बीच
ॐ  शान्ति शान्ति ॐ शान्ति.

अध्याय प्रथम
प्रथम वल्ली

महर्षि अरुण के पुत्र उद्दालक ऋषि ने अपनी सम्पूर्ण वस्तुओं को दान-दक्षिणा  में दे दिया. इन उद्दालक ऋषि का नचिकेता नाम का पुत्र था. यज्ञ के अन्त में जब सब धन समाप्त हो गया तब ऋषि अपनी जीर्ण शीर्ण गायों को दान में देने लगे. यह नचिकेता को अनुचित लगा क्योंकि दान अपनी सर्व प्रिय वस्तु का करना चाहिए. पिता को अनुचित कृत्य से रोकने के लिए नचिकेता बोला. पिताजी मैं तुम्हारा प्रिय धन हूँ, मुझको किसको दोगे. नचिकेताद्वारा बार बार पूछने पर ऋषि उद्दालक क्रोध में बोले -
मैं तुझे मृत्यु को देता हूँ. नचिकेता सशरीर यमराज के पास पहुंचा. यमराज बहार गए थे अतः उनकी प्रतीक्षा में नचिकेता तीन दिन भूखे प्यासे प्रतीक्षा करता रहा.
यमराज ने नचिकेता को तीन रात्रि के बदले तीन वर दिए. प्रथम वर पिता के क्रोध शान्ति के लिए माँगा दूसरा वर स्वर्ग प्रप्ति के लिए अग्नि विद्या का रहस्य जाना. यमराज ने दोनों इच्छा पूरी करते हुए अग्नि विद्या का नाम नाचिकेत अग्नि रक्खा.
अग्नि विद्या स्वर्ग की इच्छा से ॠक, यजु, साम, का ज्ञाता होकर यज्ञं, दान, तप करता है वह स्वर्ग लोक प्राप्त करता है.  अब नचिकेता तीसरा वर मांगता है.

देह शान्त के बाद भी
आत्मा रहता नित्य
कुछ कहते यह झूठ है
बतलायें प्रभु आप .



यमराज कहते हैं.


देव प्राप्त संदेह को
विषय सूक्ष्म अति गूढ़
समझ परे यह ज्ञान है
तुम दूसर बर लेहु

यमराज ने अनेक प्रलोभन दिए. धन, यौवन, विशाल सम्पदा, सुन्दर स्त्रियां, हजारों वर्ष की आयु और भोग आदि पर नचिकेता टस से मस  नहीं हुए. आत्म विद्या के लिए योग्य पात्र मिलने पर प्रसन्न होकर यमराज, नचिकेता को उपदेश देते हैं.


द्वितीय वल्ली


हे नचिकेता-


श्रेय साधन भिन्न हैं
प्रेय साधन भिन्न
आकर्षण दोनों करें
श्रेय जान कल्याण
जो हिय माने प्रेय को
भ्रष्ट लाभ कल्याण.१.



मानव के हैं सामने
प्रेय श्रेय दो मार्ग
विज्ञ विचारें भिन्न भिन्न
और श्रेय अपनाय
तहां मूढ हिय लोक में
प्रेय भोग अपनाय.२.



नचिकेता तुम धीर हो
लिया परीक्षा जान
भोगों में तुम ना फंसे
अति प्रिय छोड़े लोक
जान सम्पदा छोड़ दी
पुरुष फंसें जेहि जाल.३.


विद्या और अविद्या का
भिन्न भिन्न परिणाम
विद्या का अभिलाषी तू
नहीं खिंचा तू भोग.४.



जिन्हें अविद्या व्याप्त है
विद्या मूढ तू जान
नाना योनी भटकते
अंध अंध दे ज्ञान.५.



नहीं सूझता अप्रत्यक्ष उसे
हैं प्रत्यक्ष लोक के अनुरागी
नहीं अन्य कोई लोक यहाँ है
कालपाश बस् फांसी.६.


नहीं श्रवण से यह मिले
अन्य श्रवण नहीं बूझ
आत्मतत्त्व मति गूढ है
आत्म कुशल आश्चर्य.७.



जाने कोई न आत्म को
अल्पज्ञ प्रोक्त अरु सोच
सुविज्ञ प्रोक्त यह ना मिले
अणु से भी अति सूक्ष्म.८.



तेरी मति अति श्रेष्ट है
नहीं लब्ध है तर्क
धृति प्रज्ञा का वास है
हमें प्रतीक्षा तोरी.९.



कर्म फल के भोग जो
नाश जान हे श्रेष्ठ
नित्य प्राप्त, न अनित्य से
रची अग्नि नाचिकेत 
अनित्य अग्नि चित को लिए
परम परम को प्राप्त.१०.



सब प्रकार की कामना 
भोग मिलें जिस लोक
बहुत काल तक सुख मिले
वेद प्रतिष्ठित गेय
उसको त्यागा श्रेष्ठ हे
तुम मति से अति धीर.११.



यह संसार अति गहन बन
गूढ गुहा है बैठ
सर्वव्याप्त पुराण है
दुदर्श दृष्ट है, देव
योग प्राप्त अध्यात्म का
हर्ष मोह को त्याग.१२.

आत्म योग का श्रवण कर
अनुभव से जो विज्ञ
सूक्ष्म बुद्धी से जानकर
आत्मतत्त्व जो भिज्ञ
मग्न लाभ आनन्द परम में
नचिकेता तू पात्र.१३.



नचिकेता यमराज से पूछते हैं-

अधर्म धर्म से अति परे
कार्य कारण भिन्न
भूत भव से भिन्न है
भवि से भी है भिन्न
प्रसन्न मना हो धर्म हे
ज्ञान बताओ श्रेष्ठ.१४.


यमराज बताते हैं-


सकल वेद वंदन करें
साध्य सकल तप लक्ष
ब्रह्मचर्य जेहि साध है
सूक्ष्म जान वह लक्ष
ॐकार पर ब्रह्म है
यही परम का ज्ञान.१५.



यह अक्षर ही ब्रह्म है
अक्षर ही परब्रह्म
इस अक्षर को जानकर
वही प्राप्त जिस चाह.१६.



ॐ श्रेष्ठ आलम्ब है
ॐ है आश्रय परम
जान इस अवलम्ब को
ब्रह्मलोक गरिमान.१७.



ना जन्मे ना मरण हो
और नहीं दे जन्म
ना होता नहिं है हुआ
नष्ट देह नहिं नष्ट
नित्य अजन्मा शाश्वत
ज्ञान रूप है आत्म..१८.




हन्ता जाने हन्तु है
हतम् जानता हन्य
वे दोनों नहिं जानते
नहिं हन्ता नहिं हन्य.१९.




बुद्धी गुहा में पैठकर
अणु से अणु अति सूक्ष्म
महत् महत् है आत्मा
विरला साधक विज्ञ
काम शो़क से मुक्त हो
आत्म प्रसीदति प्राप्त.२०.


बैठा पहुंचे दूर अति
सोते फिरता सकल जग
नहिं अन्य कोऊ देव है
जो नहिं है उन्मत्त.२१.




अन्त्य देह में सदा
अदेह नित्य वासता
जान सहित आत्म विभु
विज्ञ विचलित हो नहीं.२२.




प्रवचन से यह ना मिले
श्रवण नहीं बहु बार
यह जिसको स्वीकारता
प्राप्त उसी को होय
प्रकट करे यह आत्मा
निज स्वरूप को दर्श.२३.




ना निवृत दुश्चरित से
बुद्धी न जिसकी सूक्ष्म
इन्द्रिय निग्रह नहिं जिसे
नहीं प्राप्त मानस अशांत.२४.




ब्राह्मण क्षत्रिय भोज्य हें
मृत्यु उसी का भोज
जहँ जैसा अक्षर परम
को जाने हे श्रेष्ठ.२५.






वल्ली  - ३



दो खग छिपकर वसत हैं
बुद्धी रूप के वृक्ष
दोनों पीते ॠत सदा
छाया धूप सम भिन्न
सब हैं ऐसा जानते
ब्रह्म, पंच, त्रय अग्नि.१.




ईश कर्म जो मुक्ति दें
नचिकेत जग पार
समर्थ हम हों जानके
अक्षर पद का पाद.२.




रथ का स्वामी जीव है
और देह रथ जान
जान सारथी बुद्धी को
मन है जान लगाम.३.




इन्द्रिय तोरी अश्व हैं
गोचर विषय को जान
मन इन्द्रिय अरु देह सह
भोक्ता जीव को जान.४.




जो अविवेकी है सदा
मन चंचल नित युक्त
दुष्ट सारथी इन्द्रयाँ
अश्व अवश नित जान.५.




जिसकी बुद्धी सूक्ष्म है
जिसके वश में चित्त
इन्द्रिय उसकी वश रहे
ज्यों रथ अच्छे अश्व.६.




अविज्ञानी है अशुचि है
जिसका मन गतिमान
नहीं प्राप्त वह परमपद
गमनागमन को प्राप्त.७.








विज्ञानी जो शुचि सदा
जिसका मन है शान्त
परम परम को प्राप्त वह
नहीं होत जग जन्म.८.




विज्ञान सारथी पुरुष का
मन में कसी लगाम
संसार सागर पर कर
परम परम विश्राम.९.




इन्द्रियाँ बलवान हैं
मन और भी बलवान है
बुद्धी उनसे परम है
सर्व परम है आत्म.१०.



महत् जान तू अति परे
अव्यक्त परम तू जान
परम पुरुष से पर नहीं
परम अवधि वह परम गति.११.




सभी भूत का आत्मा
जान इसे तू गूढ
नहिं प्रत्यक्ष सबके लिए
अतिसूक्ष्म बुद्धि प्रत्यक्ष.१२.




धी वान को चाहिए
वाक निरोधे मन प्रबल
मन रोपे फिर बुद्धि में
बुद्धि निरोपे आत्म.
साधन यह करता हुआ
आत्म आत्म में शान्ति.१३.


उठ जाग प्राप्त तू ज्ञानी को
बोध को तू जान ले
अति तीक्ष्ण सूक्ष्म यह तत्त्व है
ज्ञानवान के हैं वचन .१४.




अशब्द है अरूप है
स्पर्श हीन रस गंध हीन
अविनाशी है नित्य है
अनादि अनन्त महत् परम
जान निश्चय परम ध्रुव को
मृत्यु मुख से छूटता.१५.


१६-१७-उपसंहार है.






दूसरा  अध्याय
 प्रथम वल्ली


रची स्वयंभू इन्द्रयाँ
जिनके बाहर द्वार
मानव बाहर देखता
नहीं आत्म उर प्राप्त
विरला लौटे चक्षु आदि से
आत्मतत्त्व तब देख .१.



मूढ भोगते बाह्य विषय को
जो फैले सर्वत्र
मृत्यु पाश में वह सदा
जान धीर नहिं मोह
धीर जान नित आत्म को
नहीं अध्रुव की चाह.२.




गंध रूप स्पर्श रस
शब्द मैथुन आदि
जिनका कारण है परम
उसी अनुग्रह जान
यह भी उससे जानता
क्या रह जाता शेष.३.



जिस सत् से है देखता
स्वप्न दिवस जिन दृश्य
विभु महत् है आत्मा
जान धीर नहिं मोह.४.




जो जाने इस जीव को
भूत भवि भव कारणम्
सकल कर्म फल ईश को
सब के ईश्वर आत्म
जान तत्त्व निंदा नहीं
कभी किसी जग माहिं.५.





जल पहले वह हिरण्यमय
निज बल गुहा में पैठ
जो रहता सब भूत में
सदा जीव के साथ
सो परमेश्वर देखता
वह है वह जेहि पूछ.६.



प्राण सहित सम्भूत जो
अदिति देवमय जान
ह्रदय गुहा में पैठ कर
नित्य सदा है वास
जो है इसको जानता
यह वो है जेहि पूछ.७.



गर्भ ढका ज्यों जेर से
अग्नि बीच दो काष्ठ
हवि पात्र वह है परम
स्तुति वह, जेहि प्रच्छ.८.




सूर्य उदय हो जिस सत्ता से
और अस्त हो जिस कारण
सभी देव हैं उसे समर्पित
नहीं उल्लंघन वश में उसका
वही देव है परम देव वह
जिसको पूछे तू नचिकेता.९.



लोक व्याप्त परलोक व्याप्त
सकल लोक में वही व्याप्त
नाना भांति देखता जग में
मृत्यु मृत्यु को प्राप्त सदा वह.१०.



मन से प्राप्त यह आत्मा
जग है कुछ नहिं भिन्न
भिन्न भिन्न जग देखता
मृत्यु मृत्यु को प्राप्त.११.




अंगुष्ठ सम वह पर पुरुष
बुद्धी मध्य है वास
भूत भवि भव ईश है
राग द्वेष कोऊ नाहिं.१२.
 

अंगुष्ठ सम सूक्ष्म परन्तु महत्वपूर्ण जैसे हाथ में अंगूठा.



 अंगुष्ठ मात्र है वह पुरुष
 धूम रहित जस ज्योति
 भूत भवि भव ईश है
 आज है वह कल भी है.१४.




 वृष्टि शुद्ध जल शुद्ध हो
 निर्मल जल मिल जात
 नचिकेत यह जानकर
 आत्म आत्म को प्राप्त.१५.






दूसरा  अध्याय
 द्वितीयवल्ली



विशुद्ध ज्ञानमय आत्मा
ग्यारह द्वार पुर वास
नर जो पर का ध्यान कर
मिटे शो़क वह पार .१.


परम शुद्ध यह आत्मा
स्वयं प्रकाशित तेज
अंतरिक्ष में वसु वही
जान अतिथि वह द्वार
अनल वही, हवि है वही
सब मानव और देव.१.
वही सत्य अरु व्योम है
जल में, भू में, सकल ॠत
वही देव है सकल गिरि
उसे परम ॠत जान.२.



यही प्राण दे ऊर्ध्व गति
यही अपान को नीच
यही मध्य में देह के
देव भजे भजनीय .३.




पारगामी हे जीव यह
जब निकले अपनी  देह
क्या बचता है फिर यहाँ
वही ब्रह्म जेहि प्रच्छ.४.

ब्रह्म ही जाता है ब्रह्म ही रह जाता है. कण कण में भगवान की पुष्टि की है.


ना जीता है प्राण से
नहिं अपान से जीय
दोनों का आलम्ब जो
उससे जीते जान
नाचिकेत यह ब्रह्म है
इसे आत्म तू जान
मरण होय जेहि विधि रहे
मैं बतलाऊं तोहि.५.





यथा कर्म जेहि जीव का
यथा सुने का भाव
त्याग देह, उस योनि को
अपर मूढ जड़ प्राप्त.६.



नाना भोग उपजाय जे
जीव कामना कर्म
सो जागे जब सोय जग
वही शुद्ध है तत्त्व.७.
वही ब्रह्म है अमृत वह
सकल लोक आलम्ब
नहिं पार कोऊ जाय उस
वही ब्रह्म जेहि प्रच्छ.८.



सकल लोक में व्याप्त जेहि
अग्नि रूप तद्रूप
सकल भूत एक आत्मा
भासित भिन्न स्वरूप .९.



सकल लोक में व्याप्त जेहि
वायु रूप तद्रूप
सकल भूत एक आत्मा
भासित भिन्न स्वरूप .१०.





नयन दोष नहिं लिप्त है
सूर्य चक्षु संसार
सकल भूत यह आत्मा
लोक दोष नहिं लिप्त.११.



सकल भूत यह आत्मा
रखता वश में लोक
बहु निर्मित एक रूप से
जान धीर अनुभूत
आत्मस्थिति देख ज्ञानी
आनन्द मोक्ष उपलब्ध .१२.



नित्य का भी नित्य है
चेतना कारण परम
एक है अनेक के
उपजाये जे भोग
आत्मस्थिति देख ज्ञानी
शान्ति बोध उपलब्ध .१३.





वचनों से है पार पर
वह है सुख की खान
ज्ञानी ऐसा जानते
किमि जानूँ मैं बोध
क्या है कैसा किस तरह
केसे हो अनुभूत.१४.




सूर्य चंद्र तारे नहीं
विद्युत नहिं किमि अग्नि
उसी प्रकाशित भूत सब
सभी लोक हैं आत्म प्रकाशित.१५.






दूसरा अध्याय
 तृतीयवल्ली




अश्वत्थ सम है यह जगत
नीचे शाखा ऊपर मूल
मूल परे पर ब्रह्म है
वही अमृत वह तत्त्व
सभी उसी के आश्रित
नहीं लँघ कोऊ ब्रह्म.१.




पर ब्रह्म से उपजे जगत
चेष्टा करते लोक
उठे बज्र सम भय महत्
जो जाने वह मुक्त.२.




सूर्य तप्त हो जिसके भय से
जिसके भय से तपे अनल
इन्द्र वायु यम जिस भय वर्ते
जान उसे पर ब्रह्म.३.





देह नाश के पूर्व जो
बोध प्राप्त परब्रह्म
भिन्न लोक में घूमते
भिन्न योनी को प्राप्त.४.



दर्पण में जिमी आकृति
आत्म दर्श शुचि चित्त
पित्र लोक में दर्श पर
जिमि जल छाया रूप
गंधर्व लोक में दीखती
छाया तद् अनुरूप  
ब्रह्म लोक में दीखती
धूप छांव सम रूप .५.



भिन्न भिन्न हैं इन्द्रियाँ
भिन्न भिन्न है भाव
उदय अस्त उनकी गति
जान धीर नहीं शो़क.६.




मन बली है इन्द्रियाँ
बुद्धी जान मन श्रेष्ठ
और जीव उनसे बली
महत् जान सब श्रेष्ठ
महत् से है अति प्रबल
पुरुष अव्यक्त अलिंग
जान जिसको तत्त्व से
अमृत को नर प्राप्त .७-८.






नहीं रूप पर ईश का
विषय रूप सम नाहिं
चरम चक्षु देखे नहीं
सदा चिन्त मन शान्त
शुद्धबुद्धि बुध बोध को
अमृत अमृत हो जात.९.




पांच इन्द्रियाँ मन सहित
होती स्थिर शान्त
बुद्धि चेष्टा हो नहीं
वही परम गति जान.१०.


इन्द्रय स्थिर धारणा
जान उसे तू योग
प्रमाद हीन साधक हुआ
योग उदय नहिं अस्त.११.




वाणी मन अरु चक्षु से
नहीं प्राप्त पर ब्रह्म
वह है ऐसा जानते
नहीं अन्य उपलब्ध.१२.





द्रढ निश्चय विश्वास कर
वह है ऐसा जान
तत्त्व भाव नित साधना
सदा तत्त्व विश्वास
जो करता विश्वास अस
तत्त्व प्रसीद प्रसीद.१३.





हृदि बैठी सब कमाना
सकल नष्ट हो जात
मृत्यु अमृत को प्राप्त कर
ब्रह्म भूत हो जात.१४.




सब संशय उसके कटे
हृदय ग्रंथि हो नष्ट
म्रत्यु पार अमृत चखे
यही नित्य उपदेश.१५.




शत नाड़ी हैं हृदय वश
एक मूर्ध को जात
प्राणी जो पथ ऊर्ध्व के
अमृत अमृत को प्राप्त
दूसर नाड़ी में फंसा
जीव योनी को प्राप्त.१६.




अन्तर्यामी सब भूत का
अंगुष्ठ मात्र हृदि पैठ
मूँज सींक सम प्रथक कर
देह भिन्न अरु देख
अमृत शुक्र देखे इसे
अमृत शुक्र को प्राप्त.१७.





यम से प्राप्त उपदेश को
और जान विज्ञान
जान योग विधि नाचिकेत
अविकारी भगवान
जो यह विद्या जानते
सो अविकारी मोक्ष.१८.



ॐ तत् सत्