Saturday, 27 August 2011

उपनिषद - मांडूक्योपनिषद्

                c-सर्वाधिकार सुरक्षित     
मांडूक्योपनिषद् / बसन्त
      Author of Hindi verse
Prof. BASANT PRABHAT JOSHI


यह उपनिषद शब्द ब्रह्म  की व्याख्या करता है. ॐकार शब्द ब्रह्म है. इसके अंतर्गत संसार की उत्पत्ति, विस्तार और लय और अनिर्वचनीय स्थिति अर्थात जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, समायी है. वही भूत, वर्तमान और भविष्य है, समय से परे भी वही है.


ॐ अक्षर ब्रह्म है
जगत है प्राकट्य
भूत भवि भव ॐकार है
काल परे भी सोहि.



जो कुछ है वह ब्रह्म है
नहिं परे पर ब्रह्म
चरण चार पर ब्रह्म के
जान विलक्षण ब्रह्म.

चार पाद जाग्रत, स्वप्नवत, सुसुप्त और अनिर्वचनीय जिसे आत्मा कहा है.




ब्रह्म जागृति जगत है
जो विस्तृत ब्रह्माण्ड
लोक सात हैं सप्त अंग
मुख उन्नीस हैं जान
पाद प्रथम वैश्वानर जिसका
भोगे जग दिव रात्रि.



स्वप्न भांति सम व्याप्त जग
ज्ञान ब्रह्म पर ब्रह्म
सात अंग उन्नीस मुख
तैजस दूसर पाद.



विशेष सात अंग सात लोक हैं. मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, सहत्रधार चक्र. उन्नीस मुख पांच कर्मेन्द्रियाँ,पांच ज्ञानेन्द्रियाँ.पांच प्राण- प्राण, अपान, समान,व्यान, उदान तथा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार.


नहीं कामना सुप्त में
नहीं स्वप्न नहिं दृश्य
सुप्त सम है ज्ञान घन
मुख चैतन्य परब्रह्म
आनन्द भोग का भोक्ता
तीसर पाद पर ब्रह्म.




यह सर्वेश्वर सर्वज्ञ है
अन्तर्यामी जान
सकल कारण जगत का
सभी भूत का यही निधान.



प्रज्ञा अंतर की नहीं
नहीं बाह्य का प्रज्ञ
भीतर बाहर प्रज्ञ ना
ना प्रज्ञाघन जान
नहीं प्रज्ञ अप्रज्ञ नहिं
नहीं दृष्ट अव्यवहार्य
नहीं ग्राह्य नहिं लक्षणा
नहीं चिन्त्य उपदेश
जिसका सार है आत्मा
जो प्रपंच विहीन
शान्त शिवम अद्वितीय जो
ब्रह्म का चोथा पाद.




वह आत्मा ॐकारमय
अधिमात्रा से युक्त
अ ऊ म तीन पाद हैं
मात्रा जान तू पाद.



अकार व्याप्त सर्वत्र है
आदि जाग्रत जान
वेश्वानर यह पाद है
जान प्राप्त सब काम.



उकार मात्रा दूसरी
और श्रेष्ठ अकार
उभय भाव है स्वप्नवत
तैजस दूसर पाद
जो है इसको जानता
प्राप्त ज्ञान उत्कर्ष
उस कुल में नहिं जन्म कोउ
जेहि न हिरण्यमय ज्ञान.

हिरण्यमय शब्द सूत्रात्मा, जीवात्मा के लिए है.





मकार तीसरी मात्रा
माप जान विलीन
सुसुप्ति स्थान सम देह है
प्रज्ञा तीसर पाद
जान माप सर्वस्व को
सब लय होत स्वभाव.




मात्रा रहित ॐकार है
ब्रह्म का चौथा पाद
व्यवहार परे प्रपंच परे
कल्याणम् है आत्म
आत्म बोध कर आत्म से
आत्म प्रवेशित नित्य.








No comments:

Post a Comment