Tuesday, 6 December 2011

हे मानव तू केवल मेरी इच्छा कर, मैं तुझे अवश्य मिलूँगा. -Prof. Basant



ईश्वर के विषय में जिज्ञासा होनी अति कठिन है.
ईश्वर क्या है यह ज्ञान होना और भी कठिन है.
इससे भी कठिन है ईश्वर के प्रति ज्ञान का निश्चयात्मक होना.
ईश्वरीय मार्ग अपनाना बहुत कठिन है.
ईश्वर का बोध किसी विरले को ही होता है.
शंकराचार्य कहते हैं-
मानव देह दुर्लभ परम उसमें भी विप्रत्व
ज्ञान वेद का अति कठिन उसमें भी विद्वत्व.
यहाँ विप्र शब्द का प्रयोग विद्या के अनुरागी के लिए हुआ है.
यह केवल अनेक जन्मों के शुभ परिणाम से ही संभव होता है. मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व और सत् पुरुष का संग और भी दुर्लभ है.
मनुष्यत्व- ईसा कहते हैं- धन्य हैं वे जो मन के दीन हैं. केवल इस वचन में मनुष्यत्व का राज छिपा है. सम्पूर्ण वैदिक प्रार्थनाएँ मनुष्यत्व के विकास के लिए ही हैं. सबके प्रति कृतज्ञता, अद्भुत है. यह मनुष्यत्व ही मुमुक्षत्व की ओर ले जाता है ओर उसे स्वाभाविक रूप से सत् पुरुष का संग मिलता है.
पर हित सरसि धर्म नहिं भाई.
प्रत्येक जीव सुखी हो.
सर्वे भवन्तु सुखिनः .
यदि आप परहित नहीं भी करते हैं तो मन से दीन हो जायें. ईश्वर का राज्य आप के लिए खुल  जायेगा और मन से दीनता भी नहीं ला पाते हैं तो अपने स्वाभाविक कर्म में लगे रहें. इससे चित्त की उद्विग्नता समाप्त होती जायेगी मन दीन होने लगेगा.
यही मनुष्यत्व का मार्ग है. इसके बाद ही बोध का मार्ग स्वयं उपस्थित होता है.

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