Thursday, 5 January 2012

गायत्री /GAYATRI-गायत्री मंत्र में दिया जाने वाला तत्त्व अथवा परम तत्त्व के सम्पूर्ण स्वरूप का विवेचन करने वाला शब्द ब्रह्म ॐ है. शेष केवल निदेश और निर्देश हैं. उनका अध्यात्मिक विकास में कोई योग नहीं है.-Prof.Basant



भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले  मनुष्य, नित्य नियमित गायत्री की उपासना करते हैं। गायत्री मंत्र ऋग्वेद के छंद 'तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्' 3.62.10 और  यजुर्वेद के मंत्र  ॐ भूर्भुवः स्वः  से मिलकर बना है .
                     ऋग्वेद के इस मंत्र में सविता-सूर्य-प्रकाश-ज्ञान की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है।
यजुर्वेद का मंत्र 'ॐ भूर्भुवः स्वः' ज्ञान के सम्पूर्ण धरातल को स्पष्ट करता है. इसलिए किसी ब्रह्म तत्त्व को पूर्ण रूप से जानने वाले ऋषि ने विश्वामित्र ऋषि के गायत्री छंद में लिखे मंत्र के साथ यजुर्वेद  के मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः को जोड़कर मानव जाति को एक अद्भुत मंत्र प्रदान किया. इस गायत्री मंत्र में ऋग्वेद से लिया भाग गायत्री छंद में है इसलिए इसका नाम गायत्री पड़ा.
 सुस्पष्ट है ऋग्वेद का गायत्री छंद और गायत्री मंत्र में अंतर है. गायत्री मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्. यजुर्वेद के मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः और ऋग्वेद के छंद तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् से मिलकर बना है।
आज हिंदू इस पूरे मंत्र का जाप करते हैं पर सब दिगभ्रमित हैं. इस गायत्री मंत्र में क्या है जिसका जाप करना है जो संस्कार करते हुए दिया जाना है, न उपनयन कराने वाले आचार्य को मालूम है, न माता पिता को, केवल लीक का अनुसरण हो रहा है. तत्व को समझे बिना अनेक गायत्री लोगों ने बना डाली हैं. अतः गायत्री मंत्र का शास्त्र सम्मत विवेचन आवश्यक है.
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्
इसका अर्थ देखिये आप स्वय जानंगे कि यह केवल निदेश है, मार्ग दर्शन है.
तत् : उस
सवितु: : सविता-सूर्य- प्रकाशक- ज्ञान
वरेण्यं : वरण करने योग्य
भर्ग: : शुद्ध विज्ञान स्वरूप
देवस्य : देव का
धीमहि : हम ध्यान करें
धियो : बुद्धि को
य: : जो
न: : हमारी
प्रचोदयात : शुभ कार्यों में प्रेरित करे
उस वरण करने योग्य शुद्ध विज्ञान स्वरूप सूर्य- प्रकाशक- ज्ञान देव का हम ध्यान करें जो हमारी बुद्धि को शुभ कार्यों में प्रेरित करे.
भूर्भुवः स्वः- भू का अर्थ है स्थूल,पृथ्वी,शरीर
भुव का अर्थ है चिन्तन
स्व का अर्थ है सुख -प्रसन्नता
साधक को चहिये पहले वह शरीर और चिन्तन को ठीक करे. इन दोनों के ठीक होने पर स्व प्रसन्नता स्वयं प्राप्त होती है. इसी कारण अष्टांग योग में आसान, शम, दम आदि का विधान है.
ॐ परब्रह्म परमात्मा का नाम है. ॐ ही सत् नाम है ॐ परमात्मा का अहँकार है. ॐ ही शब्द ब्रह्म है.
प्रसन्न अर्थात शान्त होकर ॐ का ध्यान और व्यवहार में स्मरण करे. इसकी पुष्टि मांडूक्योपनिषद, भगवद्गीता आदि जगहों पर हुई है.
नाम नामी दोनों एक हैं. इसके अंतर्गत संसार की
उत्पत्ति, विस्तार और लय और अनिर्वचनीय स्थिति अर्थात जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, समायीहै. वही भूत, वर्तमान और भविष्य है, समय से परे भी वही है.
भूत भवि भव ॐकार है
काल परे भी सोहि.
ॐकार अ ऊ म तीन पाद हैं और मात्रा रहित ॐकार चौथा पाद है यह चार पाद जाग्रत, स्वप्नवत, सुसुप्तऔर अनिर्वचनीय हैं अनिर्वचनीयपाद आत्मा कहा गया है.
अ-ब्रह्म का जागृत स्वरूप  जगत है यह  वैश्वानर कहलाता है यह जगत को रात्रि दिन भोगता है.उ- स्वप्न के सामान जो जगत में व्याप्त है वह ब्रह्म का दूसर पाद तैजस है.म- सुप्तवत जब कोई कामना नहीं होती न कोई स्वप्न के सामान दृश्य होता है केवल ज्ञान रहता है.यह चैतन्य परब्रह्म जो आनन्द भोग का भोक्ता है ब्रह्म.का तीसरा  पाद है.
मात्रा रहित ॐकार- जब बहार भीतर शून्य हो जाता है,नकोई चिन्तन  रहता है न शब्द रहता है प्रपंच समाप्त हो जाते हैं केवल शान्त शिवम अद्वितीय स्थिति रहती है  यहाँ आत्म ज्ञान होता है यही ब्रह्म का चोथा पाद है.

ओंकार है धनुष
और तीर है आत्म
लक्ष ब्रह्म है जानकर
शर सम स्थिर होय
सावधान फिर स्वयं हो
ब्रह्म लक्ष को भेद.४-२-मुंडकोपनिषद्

ॐकार पर ब्रह्म है
यही परम का ज्ञान.१५-2 -कठ उपनिषद

यह अक्षर ही ब्रह्म है
अक्षर ही परब्रह्म
इस अक्षर को जानकर
वही प्राप्त जिस चाह.१६. कठ उपनिषद

ॐ श्रेष्ठ आलम्ब है
ॐ है आश्रय परम
जान इस अवलम्ब को
ब्रह्मलोक गरिमान.१७-2. कठ उपनिषद

सम्पूर्ण मांडूक्योपनिषद् ॐअक्षर ब्रह्म  को प्रतिपादित करता है.

ॐ अक्षर ब्रह्म है
जगत है प्राकट्य
भूत भवि भव ॐकार है
काल परे भी सोहि.

जो कुछ है वह ब्रह्म है
नहिं परे पर ब्रह्म
चरण चार पर ब्रह्म के
जान विलक्षण ब्रह्म.

ब्रह्म जागृति जगत है
जो विस्तृत ब्रह्माण्ड
लोक सात हैं सप्त अंग
मुख उन्नीस हैं जान
पाद प्रथम वैश्वानर जिसका
भोगे जग दिव रात्रि.

स्वप्न भांति सम व्याप्त जग
ज्ञान ब्रह्म पर ब्रह्म
सात अंग उन्नीस मुख
तैजस दूसर पाद.
विशेष – सात अंग सात लोक हैं. मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, सहत्रधार चक्र. उन्नीस मुख पांच कर्मेन्द्रियाँ,पांच ज्ञानेन्द्रियाँ.पांच प्राण- प्राण, अपान, समान,’व्यान, उदान तथा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार.

नहीं कामना सुप्त में
नहीं स्वप्न नहिं दृश्य
सुप्त सम है ज्ञान घन
मुख चैतन्य परब्रह्म
आनन्द भोग का भोक्ता
तीसर पाद पर ब्रह्म.

यह सर्वेश्वर सर्वज्ञ है
अन्तर्यामी जान
सकल कारण जगत का
सभी भूत का यही निधान.

प्रज्ञा अंतर की नहीं
नहीं बाह्य का प्रज्ञ
भीतर बाहर प्रज्ञ ना
ना प्रज्ञाघन जान
नहीं प्रज्ञ अप्रज्ञ नहिं
नहीं दृष्ट अव्यवहार्य
नहीं ग्राह्य नहिं लक्षणा
नहीं चिन्त्य उपदेश
जिसका सार है आत्मा
जो प्रपंच विहीन
शान्त शिवम अद्वितीय जो
ब्रह्म का चोथा पाद.

वह आत्मा ॐकारमय
अधिमात्रा से युक्त
अ ऊ म तीन पाद हैं
मात्रा जान तू पाद.

अकार व्याप्त सर्वत्र है
आदि जाग्रत जान
वेश्वानर यह पाद है
जान प्राप्त सब काम.

उकार मात्रा दूसरी
और श्रेष्ठ अकार
उभय भाव है स्वप्नवत
तैजस दूसर पाद
जो है इसको जानता
प्राप्त ज्ञान उत्कर्ष
उस कुल में नहिं जन्म कोउ
जेहि न हिरण्यमय ज्ञान.

हिरण्यमय शब्द सूत्रात्मा, जीवात्मा के लिए है.


मकार तीसरी मात्रा
माप जान विलीन
सुसुप्ति स्थान सम देह है
प्रज्ञा तीसर पाद
जान माप सर्वस्व को
सब लय होत स्वभाव.

मात्रा रहित ॐकार है
ब्रह्म का चौथा पाद
व्यवहार परे प्रपंच परे
कल्याणम् है आत्म
आत्म बोध कर आत्म से
आत्म प्रवेशित नित्य.

भगवद गीता  में श्री भगवान ने गायत्री के ॐको ही मूल तत्त्व, परब्रह्म बताया है.

ओंकार पर ब्रह्म है, व्यवहार मम चिन्तन करे।। 13-8।।

ऊँ परमात्मा का नाम है और आत्मा परमात्मा एक हैं। ऊँकार स्वरूप परमात्मा का चिन्तन करते हुए तथा ऊँ का भी लय करते हुए (अक्षर परब्रह्म जो मेरा स्वरूप है अर्थात वह और मैं एक हैं), तत्पश्चात अपने जन्म, स्थिति एवं अन्त के चिन्तन का भी लोप करते हुए; इस प्रकार ब्रह्म से तदाकार होता हुआ, इस देह का त्याग करता है वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।

अक्षर में हूँ शब्द ।। 25-10।।

वाणी में प्रणव अर्थात ‘ऊँ‘ हूँ।

ऊँ तत् सत् यह त्रिविध हैं, ब्रह्म नाम कहलात।। 23-17।।

यदि आप ॐ की महिमा जानना चाहते हैं तो ॐ के स्वर को अपने अंदर गुंजायमान करें, गुंजायमान करते ही सम्पूर्ण चेतना में इसका प्रभाव आप स्वयं महसूस करेंगे. स्फुरण स्वयं होने लगेगा.

अतः गायत्री मंत्र में दिया जाने वाला तत्त्व अथवा परम तत्त्व के सम्पूर्ण स्वरूप का विवेचन करने वाला शब्द ब्रह्म ॐ है. शेष केवल निदेश और निर्देश हैं. उनका अध्यात्मिक विकास में कोई योग नहीं है. इसलिए गायत्री मंत्र तोते की तरह न जपें बल्कि इसे जानकर इसमें किसे जपना है, व्यवहार में लाना है केवल ॐ का स्मरण है सिद्ध और सत्य है.
एक ओंकार सत् नाम.


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