Thursday, 30 June 2011

भगवदगीता - धर्म ओर आत्मा - www.dharma2100.com



गीता का प्रारम्भ धर्म शब्द से होता है  तथा गीता के अठारहवें अध्याय के अन्त  में इसे धर्म संवाद कहा है। धर्म का अर्थ  है धारण करने वाला अथवा जिसे धारण  कियागया है। धारण करने वाला जो है  उसे आत्मा कहा गया है और जिसे धारण  किया है वह  प्रकृति है। आत्मा इस संसार का बीज अर्थात  पिता है और प्रकृति गर्भधारण करने वाली  योनि अर्थात माता है। धर्म शब्द का प्रयोग  गीता में आत्म स्वभाव एवं जीव स्वभाव के लिए जगह जगह प्रयुक्त हुआ है। इसी परिपेक्ष में धर्म एवं अधर्म को समझना आवश्यक है। आत्मा का स्वभाव धर्म है अथवा कहा जाय धर्म ही आत्मा  है।  आत्मा का स्वभाव है पूर्ण शुद्ध ज्ञान, ज्ञान ही  आनन्द और शान्ति का अक्षय धाम है। इसके  विपरीत  अज्ञान, अशान्ति, क्लेश और अधर्म का  द्योतक है। आत्मा अक्षय ज्ञान का श्रोत है। ज्ञान  शक्ति की  विभिन्न मात्रा से किया शक्ति का उदय  होता है, प्रकति का जन्म होता है। प्रकृति के गुण  सत्त्व, रज, तम का जन्म होता है। सत्त्व -रज की  अधिकता  धर्म को जन्म देती है, तम-रज की  अधिकता  होने पर आसुरी वृत्तियां प्रबल होती  और धर्म की स्थापना अर्थात गुणों के स्वभाव  को स्थापित करने के लिए, सतोगुण की वृद्धि  के लिए, अविनाशी ब्राह्मी –स्तिथि को प्राप्त आत्मा अपने संकल्प से देह धारण कर  अवतार गृहण करती है।
सम्पूर्ण गीता शास्त्र का निचोड़ है बुद्धि को हमेशा सूक्ष्म करते हुए महाबुद्धि आत्मा में लगाये रक्खो तथा संसार के कर्म अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहो। स्वभावगत कर्म करना सरल है और दूसरे के स्वभावगत कर्म को अपनाकर चलना कठिन है क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न् भिन्न प्रकृति को लेकर जन्मा है, जीव जिस प्रकृति को लेकर संसार में आया है उसमें  सरलता से उसका निर्वाह हो जाता है। श्री भगवान ने सम्पूर्ण गीता शास्त्र में बार बार आत्मरत, आत्म –स्तिथ  होने के लिए कहा है। स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि का अनासक्त होना सरल है अत: इसे ही निश्चयात्मक मार्ग माना है।
     यद्यपि अलग अलग देखा जाय तो ज्ञान योग, बुद्धि योग, कर्म योग, भक्ति योग आदि का गीता में उपदेश दिया है परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो सभी योग बुद्धि से श्री भगवान को अर्पण करते हुए किये जा सकते हैं इससे अनासक्त योग निष्काम कर्म योग स्वतः सिद्ध हो जाता है।

       

Wednesday, 29 June 2011

RADHA-KRISHNA


 

राधा-कृष्ण
 प्रेम की युगल मूर्ती श्री राधा श्री कृष्ण जिन्हें भक्त नित्य जपते हैं, गाते हैं, जिनसे भक्ति साहित्य भरा पड़ा है जो ब्रज भूमि के प्राण हैं उनका अध्यात्मिक रहस्य क्या है इसका विचार आवश्यक है. कथा साहित्य ने इनके वास्तविक स्वररूप को छिपा दिया है. श्री कृष्ण चरित्र में राधा, योगमाया, माया और संकर्षण यह चार महत्वपूर्ण शब्द आये हैं.
 श्री कृष्ण पूर्ण विशुद्ध ज्ञान के अवतार हैं, पूर्ण ज्ञान शरीर कृष्ण रूप में अवतरित हुआ. परमात्मा की ज्ञान शक्ति राधाजी हैं, योगमाया ईश्वर की क्रिया शक्ति है, माया अज्ञान एवम क्रिया शक्ति का समूह है. संकर्षण जीव शक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसे गीता में परा प्रकृति कहा है. जीव ज्ञान शक्ति का सहारा लेकर ही परमबोध को प्राप्त होता है, यही राधा जी की भक्ति व कृपा है.

Tuesday, 14 June 2011

BEFORE BIG BANG





                     
        
               Before Big Bang

  
    It is true that BIGBANG fully established scientifically by  the universe was built. An unlimited density of a point equivalent  material expands away and the building  of universe started and  is becoming. Scientists are also clear that explosion as thebomb did not explode. It's like a balloon  was flowering. Colliding highest energy particles by  dihadroncollider in the same order the God particle are searched or being searched. God Particle  was so named because our mind is full that God  is absolute light, the  absolute energy.
       My question starts here. This material came from where? 
     Try more deeply knowing that the where energy come from when the highest energy praricals collided? 
     Universe is expansion of Ultimate Pure Gyan (absolute wisdom,knowledge & intlligence ) . Gyan can be the matter but matter can not be the Gyan.That Gyan is  having power to Anadie or    insensible.The Gyan is the ultimate source of universe .There was neither  stir nor stroke in unexplainable original stage of Gyan. Each has a certain nature. So Shant (a stage like man in the deep sleep) 
  Gyan germinated and gyan shakti (life) and action power pulsation (force) was the rise of. Gyan and force in different amounts of power to meet Trigunatmk nature began to expand.
          This human brain can be known from the study.Generally different types of brain waves in any human beings and animals
  are seen as beta wave in the active  stage, delta wave in the deep sleep etc. Similarly, Gyan in the first stage  the high delta wave was generated automatically. Gyanshakti and action force expended and beta wave activity occurred wide spread. It flows continuously added radient energy and over time Scientist Albert Einstein sources E = mc2 by been condensed and made matter.Thus expansion  of universe was began.

This is completely true & scientific that matter can not be changed in to conciousness and life nor matter can cause conciousness  and life. Hence the creator of the universe is Gyan.

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PARMATMA: धर्म / DHARMA



            

         धर्म

मेरा धर्म सबसे महान है. मैं हिंदू हूँ, मैं ईसाई, मैं मुसलमान; सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी यही सुनने को मिलता है. कोई कहता है धर्म पारलोकिक शक्ति में विश्वास और उसके साथ जुड़ी पूजा, रीत- रिवाज, दर्शन आदि है. कोई जगह धार्मिक होती है तो कोई नदी, कोई पेड़ तो कोई किताब. कोई कहता है मैं कट्टर धार्मिक तो कोई नास्तिक. इस प्रकार अनेक भ्रांतियां कब से चली आ रही हैं, पता नहीं कब तक चलेंगीं.
   मानव मन बड़ा अजब है. यह सदा संशयात्मक है और ज्यादातर की सोच मन की है. धर्म के यथार्थ स्वरूप को यदि जानना है तो बुद्धि के धरातल से सोचना होगा. धर्म का अर्थ है जिसने धारण किया है अथवा जिसे धारण किया गया है. इस दृष्टि से  मनुष्य का अध्ययन कर परिणाम जाना जा सकता है. मनुष्य को किसने धारण किया है? क्या शरीर ने, किसी दूसरे मनुष्य ने, किसी पदार्थ ने अथवा किसी अदृश्य शक्ति ने. विश्व के सभी धर्म इस विषय में लगभग एक मत हैं. इस शक्ति को जीव, आत्मा अथवा रूह कहा गया है. विज्ञान भी जीव सत्ता को स्वीकारता है. यह आत्मा क्या है?
      आत्मा कोई रूपधारी सत्ता नहीं है परन्तु इसकी उपस्थिति से प्रकृति में हलचल शुरू हो जाती है, अनेक जड़ तत्व एक होकर रूप, शरीर का आकार ले लेते हैं, उनमें चेतना आ जाती है. यह आत्मा पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है  जिसमें कोई हलचल नहीं है. यह परम ज्ञान की शांत अवस्था है. अतः परमज्ञान  को उपलब्ध होना धर्म है, यही बोध है, यही आत्मज्ञान है, यही इलहाम है. ईश्वर का राज्य यही है.
   धर्म का दूसरा अर्थ है, जिसे धारण किया है. परम ज्ञान अथवा आत्मा द्वारा भिन्न भिन्न प्रकृति को धारण किया गया है. इसलिए अनेक प्रकार के मनुष्य भिन्न भिन्न स्वभाव को रखते हैं. इसको जानना, इसका कारण जानना धर्म है. यह केवल ज्ञान से ही हो सकता है. परम ज्ञान ही महाबोध देता है. इसमें  कोई संशय नहीं है कि पूर्ण ज्ञान को उपलब्ध होना, उसकी प्राप्ति का तरीका धर्म है. 

धर्म / DHARMA


            

               धर्म

मेरा धर्म सबसे महान है. मैं हिंदू हूँ, मैं ईसाई, मैं मुसलमान; सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी यही सुनने को मिलता है. कोई कहता है धर्म पारलोकिक शक्ति में विश्वास और उसके साथ जुड़ी पूजा, रीत- रिवाज, दर्शन आदि है. कोई जगह धार्मिक होती है तो कोई नदी, कोई पेड़ तो कोई किताब. कोई कहता है मैं कट्टर धार्मिक तो कोई नास्तिक. इस प्रकार अनेक भ्रांतियां कब से चली आ रही हैं, पता नहीं कब तक चलेंगीं.
   मानव मन बड़ा अजब है. यह सदा संशयात्मक है और ज्यादातर की सोच मन की है. धर्म के यथार्थ स्वरूप को यदि जानना है तो बुद्धि के धरातल से सोचना होगा. धर्म का अर्थ है जिसने धारण किया है अथवा जिसे धारण किया गया है. इस दृष्टि से  मनुष्य का अध्ययन कर परिणाम जाना जा सकता है. मनुष्य को किसने धारण किया है? क्या शरीर ने, किसी दूसरे मनुष्य ने, किसी पदार्थ ने अथवा किसी अदृश्य शक्ति ने. विश्व के सभी धर्म इस विषय में लगभग एक मत हैं. इस शक्ति को जीव, आत्मा अथवा रूह कहा गया है. विज्ञान भी जीव सत्ता को स्वीकारता है. यह आत्मा क्या है?
      आत्मा कोई रूपधारी सत्ता नहीं है परन्तु इसकी उपस्थिति से प्रकृति में हलचल शुरू हो जाती है, अनेक जड़ तत्व एक होकर रूप, शरीर का आकार ले लेते हैं, उनमें चेतना आ जाती है. यह आत्मा पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है  जिसमें कोई हलचल नहीं है. यह परम ज्ञान की शांत अवस्था है. अतः परमज्ञान  को उपलब्ध होना धर्म है, यही बोध है, यही आत्मज्ञान है, यही इलहाम है. ईश्वर का राज्य यही है.
   धर्म का दूसरा अर्थ है, जिसे धारण किया है. परम ज्ञान अथवा आत्मा द्वारा भिन्न भिन्न प्रकृति को धारण किया गया है. इसलिए अनेक प्रकार के मनुष्य भिन्न भिन्न स्वभाव को रखते हैं. इसको जानना, इसका कारण जानना धर्म है. यह केवल ज्ञान से ही हो सकता है. परम ज्ञान ही महाबोध देता है. इसमें  कोई संशय नहीं है कि पूर्ण ज्ञान को उपलब्ध होना, उसकी प्राप्ति का तरीका धर्म है. 

Sunday, 5 June 2011

BEFORE BIG BANG/महा विस्फोट से पहले


           महा विस्फोट से पहले    

यह पूर्णतया वैज्ञानिक रूप से स्थापित सत्य है कि महाविस्फोट से इस सृष्टि का निर्माण हुआ. एक असीमित घनत्व वाले एक बिंदु के बराबर पदार्थ से निरन्तर विस्तारित होने वाले ब्रह्मांडो का निर्माण हुआ और होता जा रहा है. वैज्ञानिक यह भी स्पष्ट करते हैं कि यह विस्फोट बम के विस्फोट जैसा नहीं था. यह गुब्बारे की तरह का फूलना था. इसी क्रम में डीहैड्रोनकोलाइडर द्वारा उच्चतम उर्जा कणों को टकराकर गोड पार्टिकल खोजे गए या खोजे जा रहे हैं. गोड पार्टिकल नाम इसलिए दिया गया क्योकि हमारे दिमाग में भरा है कि ईश्वर (गोड) अनन्त प्रकाशमय है, अनन्त उर्जामय है.      
मेरा प्रश्न यहाँ से शुरू होता है. यह पदार्थ कहाँ से आया ? अधिक गहराई  से जानने कि कोशिश करें तो उच्चतम उर्जा कणों को टकराकर प्राप्त उर्जा कहाँ से आयी?        
स्रष्टि परम विशुद्ध ज्ञान का विस्तार है. ज्ञान जड़ हो सकता है पर जड़ ज्ञान नहीं हो सकता. इसलिए ज्ञान अनादि सत्ता है. सृष्टि का निर्माण का आदि कारण ज्ञान है जिसमे आदि अवस्था में कोई हलचल नहीं थी, कोई स्पंदन नहीं था. प्रत्येक का निश्चित स्वभाव होता है. इस कारण शांत ज्ञान में ज्ञान का स्फुरण हुआ और ज्ञान शक्ति तथा क्रिया शक्ति का उदय हुआ. ज्ञान और क्रिया शक्ति के भिन्न भिन्न मात्रा में मिलने से त्रिगुणात्मक प्रकृति का विस्तार होने लगा .इसे मानव मस्तिष्क के अध्ययन से भी जाना जा सकता है. सामान्यतः भिन्न भिन्न प्रकार की मस्तिष्क तरंगे किसी भी मनुष्य में भिन्न भिन्न अवस्थाओं में देखी जाती हैं जैसे क्रियाशील अवस्था में बीटा तरंग, गहरी नीद में डेल्टा तरंग आदि. इसी प्रकार परम ज्ञान में पहली अवस्था में हाई डेल्टा तरंग स्वतः उत्पन्न हुई जिससे ज्ञानशक्ति और क्रिया शक्ति विस्तृत हुई और बीटा तरंग फैलनेलगीं. यह रेडिएन्ट उर्जा लगातार निकलती गयी और कालांतर में वैज्ञानिक अल्बर्ट आयनस्टीन के सूत्र   E=mc2 के आधार पर घनीभूत हुई और पदार्थ बना. इस प्रकार सृष्टि का विस्तार होता गया और आज भी हो रहा  है. हिंदू इस परम विशुद्ध ज्ञान को परमात्मा, भगवान, शब्दब्रह्म. अव्यक्त  कहते हैं, बाइबिल ने इसे शब्द (WORD) कहा है, बौद्ध बोध कहते हैं, सिक्ख शबद, नूर और जैन मोक्ष. यह पूर्णतया वैज्ञानिक एवम सत्य है की कोई जड़ पदार्थ चेतन में न बदल सकता है, न चेतन को पैदा कर सकता है अतः सृष्टि का कारण परम ज्ञान है.

Saturday, 4 June 2011

BHAGWADGITA - WHAT AFTER DEATH?

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भगवान / GOD



संसार में ज्यादातर लोग किसी न किसी रूप में ईश्वर की पूजा, उपासना, प्रार्थना करते हैं.कोई उसे गोड कहता है, कोई अल्लाह , कहीं वह राम है तो कृष्ण भी उसी का नाम है. सभी उसे परंपरागत तरीके से पूजते हैं,पूजा  में कहीं भय है, कहीं लालच तो कहीं अज्ञान है. यह अज्ञान इतना अधिक है की एक धर्मं  अथवा पंथ की बात दूसरा नहीं सुनता है. कोई कहता है वह अखंड ज्योति है, कोई उसे सात असमानो के ऊपर बताता है, कोई कहता  है वह गोलोक, सतलोक में रहता है. कोई उसे निर्गुण कहता है, कोई उसे सगुण कहता है.
               सभी कही न कही भ्रम में हैं,क्योकि जिज्ञासा नहीं है.जिज्ञासा नहीं तो ज्ञान केसे होगा. जब ज्ञान नहीं तो परमात्मा के बारे में सब बात बेमानी हैं. आत्मा -परमात्मा तो शब्द हैं.
       परमात्मा पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है,इसी कारण  जड़ से  चेतन और चेतन से  जड़ हो जाता है. जो उसे जान लेता है वह परम ज्ञानवान हो जाता है. इसे ही इलहाम कहते हैं,अहम् ब्रह्मास्मि यही है. सृष्टि में जड़- चेतन परम ज्ञान का विस्तार है. जो खोजेगा वह पायेगा, उसे ही बोध होगा.

भगवान/ GOD

प्र १ भगवान कैसे हैं?
उ   भगवान शांत, पूर्ण विशुद्ध ज्ञान हैं.
प्र २ भगवान कैसे संसार चलाते हैं?
उ   पूर्ण ज्ञानमय होने तथा सम्पूर्ण सृष्टि के प्रत्येक परमाणु के सूक्ष्मतर अंश में स्तिथ होने के कारण ,ज्ञान के स्फुरण से,प्रत्येक परमाणु अपनी प्रकृति के कारण संचालित होता है.
प्र ३ भगवान  क्या खाते हैं?
उ   भगवान पूर्ण विशुद्ध ज्ञान होने के कारण आपके भाव को स्वीकारते हैं.
प्र ४ क्या भगवान की आंख ,कान,नाक,हाथ ,पैर हैं?
उ   पूर्ण विशुद्ध ज्ञान सृष्टि के प्रत्येक परमाणु में स्तिथ है अतः प्रकृति का प्रत्येक    अंश भगवान की आंख ,कान,नाक,हाथ ,पैर हैं.
प्र ५ क्या भगवान हमें देखते हैं?
उ   हां भगवान साक्षी भाव से हम सभी में स्तिथ हैं अतः प्रत्येक क्षण वह हम सभी को देख रहे हैं.
प्र ६ क्या प्रार्थना स्वीकार होती है?
उ   हां.आपके भाव के आधार पर प्रार्थना स्वीकार होती है.जितने अनन्य मन से आप प्रार्थना करेंगे तदनुसार सांसारिक अथवा अध्यात्मिक फल प्राप्त होगा .
प्र ७ हम कष्ट क्यों पाते हैं?
उ   हम अपने कर्मो के कारण कष्ट पाते हैं.
प्र ८ क्या अवतार होते हैं?
उ   हां. पूर्ण विशुद्धज्ञान को प्राप्त महात्मा जो अद्वितीय और अखंड ज्ञान स्वरुप था     देह त्याग के बाद किसी संकल्प को लेकर अव्यक्त परमात्मा में स्तिथ हो जाता है,
कालांतर में अपनी इच्छा से अवतार लेता है.

Friday, 3 June 2011

अहँकार

यह सारी दुनियां अहँकारी है. एक दूसरे को अहँकारी समझता है. किसी को अहँकारी कह दिया जाय तो वह तिलमिला उठता है. आपको यदि कोई निरहंकारी मिल जाय तो उससे मुझे मिला देना. जब सब अहँकारी हैं फिर  छिपाते क्यों हो, छिपते क्यों हो,हमाम में सब नंगे.
          यह अहँकार क्या है? यह आत्मा के तेज से उत्पन्न होता है. इसी के कारण मैं कर्ता हूँ, मैं भोगने वाला हूँ इसका अभिमान होता है. यह हमारी बुद्धि में,मन में, इन्द्रियों में स्थित होकर सदा मैं हूँ का अभिमान करता है. यही सुखी होता है यही दुखी होता है.यह बहुत ही निपुण है, पुराणों में इसे दक्ष प्रजापति कहा है, जिसका बध परम बुद्धि शिव -शंकर द्वारा हुआ फिर भी यह अमर है. अमर होने के कारण यह सभी जीवों में व्याप्त रहता है. मैं सभी अहंकारियों को सादर नमन करता हूँ.
     अतः अहँकार से दुश्मनी छोड़ दोस्ती कर लें. इसको जाने, इसको पहचाने क्योकि यह आत्मतत्व के सबसे नजदीक है. इसके द्वारा आत्मा को जाने. इसे योग बना लें.अहँकार योग सबसे सरल सबसे व्यवहारिक.
       मैं कौन हूँ का निरन्तर चिन्तन अहँकार को परम पूर्ण शुद्ध ज्ञान में बदल देगा और स्व अर्थात आत्म अनुभूति उपलब्ध होगी.