Tuesday, 14 June 2011

धर्म / DHARMA


            

               धर्म

मेरा धर्म सबसे महान है. मैं हिंदू हूँ, मैं ईसाई, मैं मुसलमान; सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी यही सुनने को मिलता है. कोई कहता है धर्म पारलोकिक शक्ति में विश्वास और उसके साथ जुड़ी पूजा, रीत- रिवाज, दर्शन आदि है. कोई जगह धार्मिक होती है तो कोई नदी, कोई पेड़ तो कोई किताब. कोई कहता है मैं कट्टर धार्मिक तो कोई नास्तिक. इस प्रकार अनेक भ्रांतियां कब से चली आ रही हैं, पता नहीं कब तक चलेंगीं.
   मानव मन बड़ा अजब है. यह सदा संशयात्मक है और ज्यादातर की सोच मन की है. धर्म के यथार्थ स्वरूप को यदि जानना है तो बुद्धि के धरातल से सोचना होगा. धर्म का अर्थ है जिसने धारण किया है अथवा जिसे धारण किया गया है. इस दृष्टि से  मनुष्य का अध्ययन कर परिणाम जाना जा सकता है. मनुष्य को किसने धारण किया है? क्या शरीर ने, किसी दूसरे मनुष्य ने, किसी पदार्थ ने अथवा किसी अदृश्य शक्ति ने. विश्व के सभी धर्म इस विषय में लगभग एक मत हैं. इस शक्ति को जीव, आत्मा अथवा रूह कहा गया है. विज्ञान भी जीव सत्ता को स्वीकारता है. यह आत्मा क्या है?
      आत्मा कोई रूपधारी सत्ता नहीं है परन्तु इसकी उपस्थिति से प्रकृति में हलचल शुरू हो जाती है, अनेक जड़ तत्व एक होकर रूप, शरीर का आकार ले लेते हैं, उनमें चेतना आ जाती है. यह आत्मा पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है  जिसमें कोई हलचल नहीं है. यह परम ज्ञान की शांत अवस्था है. अतः परमज्ञान  को उपलब्ध होना धर्म है, यही बोध है, यही आत्मज्ञान है, यही इलहाम है. ईश्वर का राज्य यही है.
   धर्म का दूसरा अर्थ है, जिसे धारण किया है. परम ज्ञान अथवा आत्मा द्वारा भिन्न भिन्न प्रकृति को धारण किया गया है. इसलिए अनेक प्रकार के मनुष्य भिन्न भिन्न स्वभाव को रखते हैं. इसको जानना, इसका कारण जानना धर्म है. यह केवल ज्ञान से ही हो सकता है. परम ज्ञान ही महाबोध देता है. इसमें  कोई संशय नहीं है कि पूर्ण ज्ञान को उपलब्ध होना, उसकी प्राप्ति का तरीका धर्म है. 

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