Friday, 29 July 2011

भगवदगीता



भगवद्गीता धर्म और आत्मा

 गीता का प्रारम्भ धर्म शब्द से होता है तथा गीता के अठारहवें अध्याय के अन्त में इसे धर्म संवाद कहा है। धर्म का अर्थ है धारण करने वाला अथवा जिसे धारण किया गया है। धारण करने वाला जो है उसे आत्मा कहा गया है और जिसे धारण किया है वह प्रकृति है। आत्मा इस संसार का बीज अर्थात पिता है और प्रकृति गर्भधारण करने वाली योनि अर्थात माता है। धर्म शब्द का प्रयोग गीता में आत्म स्वभाव एवं जीव स्वभाव के लिए जगह जगह प्रयुक्त हुआ है। इसी परिपेक्ष में धर्म एवं अधर्म को समझना आवश्यक है। आत्मा का स्वभाव धर्म है अथवा कहा जाय धर्म ही आत्मा है। आत्मा का स्वभाव है पूर्ण शुद्ध ज्ञानज्ञान ही आनन्द और शान्ति का अक्षय धाम है। इसके विपरीत अज्ञानअशान्तिक्लेश और अधर्म का द्योतक है।
 आत्मा अक्षय ज्ञान का श्रोत है। ज्ञान शक्ति की विभिन्न मात्रा से क्रिया शक्ति का उदय होता हैप्रकति का जन्म होता है। प्रकृति के गुण सत्त्वरजतम का जन्म होता है। सत्त्व -रज की अधिकता धर्म को जन्म देती हैतम-रज की अधिकता होने पर आसुरी वृत्तियां प्रबल होती और धर्म की स्थापना अर्थात गुणों के स्वभाव को स्थापित करने के लिएसतोगुण की वृद्धि के लिएअविनाशी ब्राह्मी –स्थिति  को प्राप्त आत्मा अपने संकल्प से देह धारण कर अवतार गृहण करती है।
सम्पूर्ण गीता शास्त्र का निचोड़ है बुद्धि को हमेशा सूक्ष्म करते हुए महाबुद्धि आत्मा में लगाये रक्खो तथा संसार के कर्म अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहो। स्वभावगत कर्म करना सरल है और दूसरे के स्वभावगत कर्म को अपनाकर चलना कठिन है क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न् भिन्न प्रकृति को लेकर जन्मा हैजीव जिस प्रकृति को लेकर संसार में आया है उसमें  सरलता से उसका निर्वाह हो जाता है। श्री भगवान ने सम्पूर्ण गीता शास्त्र में बार बार आत्मरतआत्म स्तिथ  होने के लिए कहा है। स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि का अनासक्त होना सरल है अत: इसे ही निश्चयात्मक मार्ग माना है।
  यद्यपि अलग अलग देखा जाय तो ज्ञान योगबुद्धि योगकर्म योगभक्ति योग आदि का गीता में उपदेश दिया है परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो सभी योग बुद्धि से श्री भगवान को अर्पण करते हुए किये जा सकते हैं इससे अनासक्त योग निष्काम कर्म योग स्व्त: सिद्ध हो जाता है।

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