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ईशावास्य उपनिषद
ईशावास्य उपनिषद
ॐ
AUTHOR OF HINDI VERSE
PROF BASANT PRABHAT JOSHI
This volume is reverently dedicated
to all lovers of JANAN (GYAN) and me.
पूर्ण मदः पूर्ण मिदं पूर्णात पूर्ण मुदचत्ये,
पूर्णस्य पूर्ण मादाय पूर्ण मेवावशिश्यते
पूर्ण हैं प्रभु, पूर्ण यह जग,
पूर्ण से जग पूर्ण है,
पूर्णता से पूर्ण घट कर,
पूर्णता से पूर्ण घट कर,
पूर्णता ही शेष है.
ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथाः मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ॥१॥
ईश समाया जगत में
जगत ईश परिपूर्ण
त्यागी बन भोगो जगत
नहीं वृत्ति पर अर्थ.
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥
एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥
कर्तव्य कर्म आधार बन,
भोगे जीवन शरद सत
निष्काम कर्म आधार हैं
अन्य राह नहीं यहाँ.
असुर्या नाम ते लोका अंधेन तमसा वृताः।
ता स्ते प्रेत्याभिगछन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥
ता स्ते प्रेत्याभिगछन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥
अज्ञान से आवृत्त हैं,
असुर नाम सब लोक
जो अपने ही शत्रु हैं,
प्रेत प्राप्त बस लोक
अनेजदैकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥
तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥
मन बुद्धि से पर परम
कूटस्थ है परब्रह्म
अचल पर वह नित चले,
प्राण वायु का प्राण.
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः ॥५॥
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः ॥५॥
अचल होकर नित चले,
दूर रह यह पास
सब में रहता नित सदा.
है विलक्षण सर्वदा. .
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मनेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥
जो सब में मैं देखता,
मैं देखे सर्वत्र
राग द्वेष से मुक्त वह
सदा आत्म स्वरूप
यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥
सब भूतों में देखता
अपना शुद्ध स्वरूप
शोक मोह नहीं वहाँ
जुड़ा सकल जग भूत.
स पर्यगाच्छक्रमकायव्रणम स्नाविर शुद्धमपापविद्धम।
कविर्मनीषी परिभुः स्वयंभूर्याथातत्थ्यतो र्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्यहः समाभ्यः ॥८
कविर्मनीषी परिभुः स्वयंभूर्याथातत्थ्यतो र्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्यहः समाभ्यः ॥८
परम पवित्र निर्विकार,
स्वयं भू सर्वज्ञ
निराकार परम बोध
रचे प्रजापति आदि .
(प्रजापति का अर्थ है अहँकार ,बुद्धि मन, ज्ञानेन्द्रियाँ आदि )
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥९॥
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥९॥
अंध लोक में कर प्रवेश
भ्रम में, विद्या हीन
घोर अंध में जात वे
जो विद्या विद्वान
अन्यदेवाहुर्विद्यया न्यदेवाहुर्विद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१०॥
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१०॥
विद्या और अविद्या का
भिन्न भिन्न परिणाम
धीर पुरुषों का यह वचन,
जाना ज्ञान विशेष.
( सांसारिक विद्या अविद्या कहलाती है,परमार्थिक विद्या, विद्या कहलाती है. )
विद्यां चाविद्यां च यस्तद वेदोभयम सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥११॥
विद्यां चाविद्यां च यस्तद वेदोभयम सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥११॥
विद्या और अविद्या का
तात्विक जाने ज्ञान
अविद्या मृत्यु को पार कर
विद्यामृत सो प्राप्त
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये सम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्या रताः ॥१२॥
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्या रताः ॥१२॥
अंध लोक में जात
वे जो माया के दास
घोर अंध में जात वे
जिन पूजा अभिमान
अन्यदेवाहुः संभवादन्यदाहुरसंभवात।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद विचचिक्षिरे ॥१३॥
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद विचचिक्षिरे ॥१३॥
प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष का
भिन्न भिन्न परिणाम
विज्ञ जानते भेद को,
दिया हमें वह ज्ञान
प्रत्यक्ष ज्ञान संसारी ज्ञान को कहते हैं, इसे आसुरी ज्ञान (manifested) भी कहा है. देवीय ज्ञान (unmanifested) अप्रत्यक्ष ज्ञान कहा गया है.
संभूतिं च विनाशं च यस्तद वेदोभयम सह।
विनाशेन मृत्युम तीर्त्वा सम्भुत्या मृतमश्नुते ॥१४॥
विनाशेन मृत्युम तीर्त्वा सम्भुत्या मृतमश्नुते ॥१४॥
प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष को
सदा जानते विज्ञ
मृत्यु भय से मुक्त हो
अमृत प्राप्त सम्भूत.
हिरण्यमयेंन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं।
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये ॥१५॥
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये ॥१५॥
स्वर्ण पात्र से है ढका
सत् का मुख यह जान
प्रभु खोलो इस पात्र को
सत्य ज्ञान पहिचान
पूषन्नेकर्षे यम् सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन समूह।
कल्याणतमं तत्ते पश्यामि यो सौ पुरुषः सो हमस्मि ॥१६॥
कल्याणतमं तत्ते पश्यामि यो सौ पुरुषः सो हमस्मि ॥१६॥
व्यूह रश्मि समेट लो,
दर्शन हों प्रत्यक्ष
कल्याण रूप दर्शन करूं
कल्याण रूप दर्शन करूं
आत्म रूप सो पुरुष मैं.
वायुर्निलममृतमथेदम भस्मानतम शरीरम।
ॐ क्रतो स्मर कृत स्मर क्रतो स्मर कृत स्मर ॥१७॥
ॐ क्रतो स्मर कृत स्मर क्रतो स्मर कृत स्मर ॥१७॥
देह भस्म हो अग्नि में,
प्राण वायु में लीन
स्व निमग्न रत कर्म मम
स्मर स्मर ओम् ध्यान
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान विश्वानी देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्म ज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥१८॥
युयोध्यस्म ज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥१८॥
हे! अनलमय ईश हमको
अभ्युदय को ले चलो
कर्म मम से विज्ञ होकर
कर्म मम से विज्ञ होकर
नाश कर दो पाप को
नमन मम स्वीकार हो
नमन मम स्वीकार हो.
ॐ तत् सत्
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