कृष्ण प्रेम
श्री भगवान गोपियों से कहते हैं, जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं वह स्वार्थी हैं, उनका सारा प्रयत्न लेन देन मात्र है. उनमें न सोहार्द है न धर्म. जो लोग प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं उनका ही प्रेम निश्छल है, सोहार्द व धर्म पूर्ण है. इस संसार में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो प्रेम करने वाले से भी प्रेम नहीं करते. जो अपने स्वरुप में स्तिथ रहते हैं जिनके लिए दूसरा कोई नहीं है. दूसरे वे हैं जिन्हें द्वैत भासित होता है पर उन्हें किसी से कोई प्रयोजन नहीं. वे आत्म तृप्त होते हैं. तीसरे जानते ही नहीं कि कौन उनसे प्रेम करता है और चोथे वो जो अपना हित करने वाले ,प्रेम करने वाले से भी द्रोह करते हैं.
परन्तु हे गोपियो मैं तो प्रेम करने वाले से भी प्रेम जैसा व्यवहार नहीं करता जैसा करना चाहिए. मैं इसलिए ऐसा करता हूँ कि उनकी चित्त वृत्ति मुझ में अर्थात अत्मतत्व में लगी रहे. मैं सदा परोक्ष अपरोक्ष रूप से प्रेम करता हूँ पर उसे प्रकट नहीं करता. मेरा प्रेम अहैतुक है.
“जैसा मैं हूँ वैसी तुम हो. मुझमें तुममें भेद नहीं है”.
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