Sunday, 31 July 2011

उपनिषद-मुंडकोपनिषद्


                 c-सर्वाधिकार सुरक्षित
   मुंडकोपनिषद् / बसन्त
        ॐ
    AUTHOR  OF HINDI VERSE    
   PROF BASANT PRABHAT JOSHI 
  
            

प्रथममुंडक-प्रथम खंड ब्रह्म परिचय

प्रस्तावना-यह ब्रह्म विद्या ब्रह्मा जी द्वारा  अपने पुत्र अथर्वा क्रमशः अँगी, भारद्वाज अंगिरा को प्राप्त हुई. भारद्वाज से शौनक ऋषि आकर पूछते हैं. इस प्रकार परा अपरा विद्या का ज्ञान दिया गया है.१-५.



अदृश्य है अग्राह्य है
विहीन इन्द्रियादि से
अगोत्र है अवर्ण है
अपाणि पाद नित स्वयं
सर्व गत सूक्ष्म  है
भूत कारण अव्ययम
विज्ञ देखते उसे
ओर छोर विश्व में.६.


ताना बाना मकड़ी बुने
उसको सो खा जाय
धरा पुष्ट हो खुद उगें
जैसे पादप भिन्न
रोम प्रकट जिमि पुरुष में
विश्व प्रकट परब्रह्म.७.


सृष्टि इच्छा करते ही
अंकुर सम परब्रह्म
स्थूल से तब प्राण मन सत्त्व
लोक कर्म उत्पन्न
कर्म फल हों कर्म से तब
जो सदा रहते अमर.८.


सर्वज्ञ हैं वह परम ज्ञानी
ज्ञान जिसका तप स्वयं
ज्ञानमय उस ब्रह्म से
जीव जग उत्पन्न हों.९.

मुंडकोपनिषद्
         
दूसरा मुंडक-प्रथम खंड 


अक्षर है वह सत्य है
ब्रह्म बीज सब भूत
चिनगी निकलें अग्नि से
जीव जगत तस ब्रह्म
भाव प्रकट परब्रह्म से
ओर उसी में लीन .१.


दिव्य है अमूर्त है
बाहर भीतर विद्यमान
मनोहीन अ़ज अप्राण
अक्षर से अति श्रेष्ठ.२.


प्राण जन्मते इस अक्षर से
मन इन्द्रिय आधार
आकाश वायु जल तेज धरा
इन सबका आधार.३.


जिसका मस्तक अग्नि है
सूर्य चंद्र हैं नेत्र
धरा टिकी जेहि चरण में
सकल भूत का आत्म.४.


सभी जड़ चेतन उस आत्मदेव से उत्पन्न हुए हैं- सकल ईश परिपूर्ण.५-९.



जगत कर्म तप पुरुष है
अमृत रूप पर ब्रह्म
सब जीवों में वह बसे
करे अविद्या नाश.१०.


मुंडकोपनिषद्

दूसरा मुंडक-दूसरा खंड 


बुद्धि गुहा में परम बोधमय
अन्तर्यामी पैठ
चलते उड़ते सूंघते
सभी समर्पित ब्रह्म
लौकिक ज्ञान विषय नहीं यह
परम श्रेष्ठ परब्रह्म.१.

दीप्तमान अणु से भी अणु यह
सकल भूत जेहि व्याप्त
अविनाशी यह
प्राण यही है
वाक् सत्य मन अमृत है
कर वेधन तू निश्चय मन से
अक्षर का ले लक्ष .२.


उपासना की धार से
करे तीर को तेज
इन्द्रिय डोर को खींच कर
सावधान चित आत्म
जान लक्ष को ज्ञान से
अक्षर को तू भेद.३.


ओंकार है धनुष
और तीर है आत्म
लक्ष ब्रह्म है जानकर
शर सम स्थिर होय
सावधान फिर स्वयं हो
ब्रह्म लक्ष को भेद.४.


जानो तुम उस स्वयं को
मन, ख़म्, भू, द्यू, लोक
सकल हेतु तू छोड़ दे
यही मोक्ष का हेतु.५.


केन्द्र चक्र रथ में अरे
हृदय नाड़ि तस देह
तहां वास यह आत्मा
भिन्न नाद आधार
इस अलौकिक आत्म का
करो ॐ मय ध्यान
तमस परे इस बोध का  
अन्य न हेतु उपाय.६.



सर्ववित सर्वज्ञ है
भू ख़म स्थित नित्य
एक देह से अपर में
हृदि आश्रित कर देह
जान ज्ञान विज्ञान को
स्वयं आत्म आनन्द
परम बोध के अमृत का
साधक करता पान.७.



आत्म बोध के होत ही
जीव ग्रंथि का नाश
सारे संशय तब मिटें
कर्म क्षीण हो जांय.८.


निष्कल ब्रह्म सदा निर्मल है
परम कोष में स्थित
ज्योतियों की ज्योति है
आत्म ज्ञानी को सुलभ.९.


उसको सूर्य न भासित करता
नक्षत्र, शशी, विद्युत. अनल
ज्योति प्रकाशित उसी परम से
परम ज्ञान से सभी प्रकाशित.१०.



अग्रे ब्रह्म पृष्ठे ब्रह्म
ऊपर ब्रह्म  नीचे ब्रह्म
दायें ब्रह्म बायें ब्रह्म
सकल जगत है ब्रह्म स्वरूप.११.




मुंडकोपनिषद्

तीसरा मुंडक-प्रथम खंड

यहां जीवन रहस्य बताता गया है. यही ज्ञान आगे चलकर विपासना (विपश्यना) का आधार बना. यह मुंडक खंड आत्मज्ञानी साधकों को अति प्रिय है.


दो पक्षी एक डाल पर
रहते निसि दिन साथ
एक स्वाद ले सकल फल
अपर टकटकी देख .१.

शरीर- वृक्ष
दो पक्षी- जीव और परम बोध
स्वाद- देह आसक्ति
टकटकी- साक्षी भाव



पक्षी देखे दीनता
आश्रय रहता वृक्ष
मोहित होता स्वाद से
ओर शोक को प्राप्त
शोक मोह को त्यागकर
साक्षी बनता जीव
तब देखे वह स्वयं में
अपनी दिव्य विभूति
अपनी महिमा देखकर
नष्ट शो़क संसार .२.


जब देखे वह परम को
ब्रह्मा का आधार
पाप पुण्य को त्यागकर
आत्मरूप हो जात.३.


जो सब भासित भूत में
सभी  भूत का प्राण
इसे जान प्रत्यक्ष का
किंचित नहीं है मान
सदा आत्मरत वह पुरुष
क्रीड़ा करता आत्म
परम श्रेष्ठ वह दिव्य है
उसे यथार्थ का ज्ञान.४.


प्राप्त आत्म इस सत्य से
तप से सम्यग्ज्ञान
ब्रह्मचर्य सम दृष्टि से
योगी जाने ज्ञान
शब्द ब्रह्म है व्याप्त जग
भीतर देखे ज्ञान.५.



सत्य है सदा जयी
सत्ता असत की है नहीं
बोध ज्ञान सत्य से
पूर्ण काम प्राप्त हों
वही सत्य लोक है
वर्तमान है सदा.६.



दिव्य है अचिन्त्य है
सूक्ष्म सूक्ष्म भासमान
दूर है समीप है
चेतन्य रूप देह में
बुद्धि की गुहा में बैठ
ज्ञानवान देखता.७ .



नेत्र से न घ्राण से
न वाक इन्द्रियादि से
न कर्म से न तप सकल
ज्ञान के प्रसाद से
विशुद्ध चित्त पुरुष ही
शुद्ध आत्म देखता.८.



पंच प्राण के देह में
वास करे यह आत्म
सो पुरुष है जानता
बोध ज्ञान विज्ञान
मन बुद्धि और इन्द्रियाँ
जिससे हैं सब व्याप्त
परम शुद्ध चित होत ही
स्वयं प्रकाशित आप.९.



मन से भावे लोक जिस
जिन भोगों की चाह
प्राप्त उन्हीं सब लोक को
उसी भोग को प्राप्त
लिए कामना भोग की
आत्म ज्ञानि को पूज.१०.






 मुंडकोपनिषद्

तीसरा मुंडक-दूसरा खंड



जो जाने वह स्वयं ही
जगत उसी का रूप
अमल रूप जो भासता
उसी आत्म का ध्यान
विज्ञ बीज का नाश कर
बंधन छूटे कर्म .१.



जो जो जेसी कामना
तहां तहां अस योग
जहाँ पूर्ण है कामना
बीज नष्ट इह लोक .२.



प्रवचन से यह ना मिले
मेधा श्रवण से नाहिं
जेहि इच्छा इस आत्म की
निज स्वरूप को व्यक्त.३.



ना मिलता बल हीन को
नहिं प्रमाद तप अमुनि
विज्ञ विवेकी जतन कर
आत्म बोध को प्राप्त.४.



प्राप्त बोध को मुनि सदा
ज्ञान तृप्त हो जात
बोध तृप्ति से बीतरागी
शांत मना हो जात
अन्तकाल में धीर पुरुष वह  
ब्रह्मलीन हो जात.५.



वेदान्त ज्ञान को प्राप्त हो
जिसका निश्चय ठोस
ज्ञान योग संशुद्धि वह
ब्रह्म लोक को प्राप्त
अन्तकाल तज देह को
अमृत मुक्ति को प्राप्त.६.




देह  की पन्द्रह कलाऐं  
अपने आश्रय ठौर
सभी देव इन्द्रियादि के
श्रेष्ठ देव में लीन
सभी कर्म क्षय होत ही
परम अव्यक्त में लीन.७.



नदी समाती जलनिधि में जिमि
नाम रूप को त्याग
परम बोध को मुक्त पुरुष तस
दिव्य पुरुष को प्राप्त.८.

८-१० में ग्रन्थ का उपसंहार है.

ॐ तत् सत् .



    



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